अप्रैल 19, 2017

हम होंगे कामयाब एक दिन ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया

     हम होंगे कामयाब एक दिन ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया

हम होंगे कामयाब , हम होंगे कामयाब , हम होंगे कामयाब , एक दिन।
कितना अच्छा लगता है , एक दिन सब अच्छा ही अच्छा होगा , जाने कब।

बस एक दिन सप्ताह में पेट्रोल पंप बंद रखो ईंधन की बचत होगी। 
बात मन की है । 
सलाह हो या सुझाव या फिर आदेश अथवा कानून सरकार का सर माथे । मालूम नहीं दिल्ली में ऑड इवन नंबर से नतीजा क्या निकला , फरमान था अमल किया सब ने। चलो इसे भी कर देखते हैं , एक दिन की ही तो बात है। हम मंगलवार शाकाहारी हो जाने वाले लोग हैं , एक दिन उपवास भी रख लिया करते हैं। ये दूसरी बात है कि इसी देश में करोड़ों लोग हर दिन भी इक समय उपवास करते हैं फिर भी प्रभु उनकी नहीं सुनता। मगर एक दिन और भी बहुत कुछ नहीं करने का सुझाव अपन आम लोग भी दे सकते हैं।

        हर रविवार को कोई नेता भाषण नहीं दे , कोई रैली रोड शो प्रदर्शन नहीं किया जाये। ध्वनि प्रदूषण से लेकर साम्प्रदायिकता का ज़हर तक घट सकता है , शांति रह सकती है देश भर में और बचत की बचत भी।

       हर रविवार अगर टीवी पर सरकारी विज्ञापन नहीं दिखलाये जायें न ही अख़बार में छपें तो जनता के धन का कितने करोड़ रूपये का फज़ूल खर्च कम हो जायेगा। मीडिया वाले भी भूखे नहीं मर जायेंगे।
    और अगर मीडिया वाले भी सप्ताह में एक दिन रविवार को केवल वास्तविक सच्ची खबरें ही दिखायें , कोई तमाशा नहीं , फालतू की बहस नहीं , खुद अपने आप का गुणगान नहीं। मगर पहले खबर किसे कहते हैं उस परिभाषा को तो पढ़ लें। वो सूचना जो कोई लोगों तक पहुंचने नहीं देना चाहता पत्रकार का कर्तव्य है उसका पता लगाना और उसको सार्वजनिक करना। जिस का खुद कोई शोर मचा रहा है उसको खबर नहीं कहते। फायदा होगा , सच सप्ताह में एक दिन खुल कर सांस ले पायेगा।

     पुलिस वाले , प्रशासन वाले , नेता लोग , वी आई पी समझे जाने वाले या कहलाने वाले , बड़े बड़े अभिनेता , खिलाड़ी , धनवान उद्योगपति , धर्म गुरु उपदेशक , सब को सादगी की बात समझाने वाले ,सप्ताह में एक दिन अपने सभी शाही ठाठ बाठ , शान-ओ -शौकत छोड़ आम नागरिक की तरह रहकर ये समझने का प्रयास करें कि देश में वास्तविक समानता के क्या मायने हैं। आप सोचोगे भला इस से क्या होगा , मुमकिन है कुछ लोगों को समझ आ सके कि उनकी शान-ओ -शौकत की कीमत कोई और चुकाता है। क्योंकि आपके पास ज़रूरत से बहुत अधिक है इसीलिए करोड़ों के पास ज़रूरत लायक भी नहीं है।

       आखिर में इक शायर के लोकप्रिय शेर पर इक दूसरे शायर की ताज़मीने से :-

            ख्याल उसकी तरफ कब गया है मौसम का ,
           कभी जो पूछे सबब उस गरीब के ग़म का ,
          खुले भी राज़ तो फिर कैसे चश्मे-पुरनम का ,
         "चमन में कौन है पुरसाने-हाल शबनम का ,
             गरीब रोई तो गुंचों को भी हंसी आई "।

          (  चश्मे-पुरनम= अश्रुपूर्ण नेत्र।  पुरसाने-हाल=हाल पूछने वाला। )  

 

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