ख़ुदकुशी आज कर गया कोई ( कटु - सत्य )
आलेख - डॉ लोक सेतिया
शब्द नहीं हैं बयान करने को , इक फौजी देश की सुरक्षा में जान देता तब और बात होती , मगर जब देश की व्यवस्था से निराश और परेशान होकर ख़ुदकुशी करता है तब बात अत्याधिक खेद की हो जाती है। और इस से अफ़सोस की बात ये होती है कि जो जीते जी आम नागरिक के दर्द को नहीं समझते वही नेता और सरकारें किसी के ख़ुदकुशी करने पर दिखावे की सहानुभूति से ओछी राजनीति तक सभी कुछ करते हैं। इक पंजाबी गीत है:-" जिऊंदे जी कंडें देंदी ऐ ,
मोयां ते फुल चढ़ाऊँदी ऐ ,
मुर्दे नू पूजे ऐ दुनिया ,
जिऊंदे दी कीमत कुझ वी नहीं।
जी करदा ऐ इस दुनिया नू मैं हस के ठोकर मार दियां। "
आज मेरा भी यही कहने का दिल है। कोई एक करोड़ की सहायता देने की घोषणा करता है , कोई परिवार के सदस्य को नौकरी और दस लाख देने की घोषणा। क्या मतलब है , आपने जिन बातों से विवश किया किसी को आत्महत्या करने को उनको दूर करने की ज़रूरत नहीं समझते आज भी , पहले भी कितनी बार आपने यही किया , मगर लोग क्यों इस कदर बेबस और निराश हैं , कभी सोचा ही नहीं। कहने को जो भी कहते हों नेता या प्रशासनिक अधिकारी हद दर्जे के निष्ठुर और पाषाण हृदय और असंवेदनशील हो चुके हैं। मानवता का दर्द उनको रत्ती भर भी समझ नहीं आता। आम आदमी जाता है इनके पास विवशता में , मगर ये नीचे से ऊपर तक सभी कर्मचारी अधिकारी मंत्री , उसको इंसान ही नहीं समझते। आज इक वही नहीं मरा जिसकी बात हो रही है , ये लोग हर दिन कितनों को जीते जी मारते रहते हैं बिना किसी अपराध या कारण। लोकतंत्र को लूटतंत्र बना रखा है इन लोगों ने। आप शायद कल ही भूल जाओगे इस को भी जैसे सत्येन्द्र दुबे को भूल गये हैं। कौन है उसका कातिल। कौन इनका भी कातिल है। अफ़सोस होता है किसी की मौत को ऐसे इक तमाशा बना देना।कभी कभी लगता है इस देश में आम आदमी की ज़िंदगी की कीमत है न मौत की ही। लेकिन इस तरह की घटना से सवाल उठता है क्या यही विकल्प बचा है आम बेबस इंसान के पास , मौत को गले लगा कर ही अपने लोगों का कुछ भला कर सकते हैं। इक तमाचा है ये घटना उस व्यवस्था के मुंह पर जो अभी स्वर्ण जयंती मनाने में दावे करती दिखाई दी थी प्रगति और विकास की। मगर जानता हूं कोई खुद को उत्तरदायी नहीं समझेगा शर्मसार होना तो दूर की बात है। उस व्यक्ति को श्रद्धा सुमन भेंट करना चाहता हूं अपने ही कुछ शेरों द्वारा।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें