नवंबर 03, 2016

अंधे-बहरे लोग , जलसा करते हैं ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

  अंधे-बहरे लोग , जलसा करते हैं ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

              अंतर तो है , ख़ास लोग जश्न मनाते रहते हैं , स्वर्ण जयंती का कभी गणतंत्र दिवस कभी स्वतंत्रता दिवस का। आम लोग बस किसी तरह बदहाली में मर मर के जीते हैं। ख़ास लोग भीड़ एकत्र करते हैं सत्ता का उपयोग कर के , देश की जनता का धन व्यर्थ के आयोजनों पर बर्बाद कर के खुद का गुणगान करने को। और आपस में इक दूजे को महान बताकर खुश होते हैं , इसी को वो तरक्की की  तरफ इक कदम बढ़ाना मानते हैं। भाषण देते हैं समझाने को , कि अगर सभी इक कदम आगे बढ़ेंगे तो देश या राज्य करोड़ों कदम आगे बढ़ेगा। मगर इक बात नहीं बताते कि कदम बढ़ाना किस ओर है। सच की तरफ या दिखावे को झूठ की तरफ। लो इक खास व्यक्ति को सम्मानित किया गया राज्य को इक बुराई या समस्या से मुक्त घोषित किये जाने के लिये। और मान लिया गया अब वो समस्या समाप्त हो चुकी है। ऐसी कितनी समस्याएं सरकार समाप्त कर चुकी मानती है  , जब कि जनता आज भी उनसे त्रस्त है। गरीबी , बाल - मज़दूरी , बंधुआ  - मज़दूरी , शिक्षा की बदहाली , स्वास्थ्य सेवा की बीमार दशा , पुलिस - प्रशासन का तौर तरीका और जनता को अकारण परेशान करने की आदत , नेताओं का प्रशासन में अनुचित दखल देना और सरकारी भूमि पर अतिक्रमण करने वालों पर करवाई करने से सरकारी विभाग को रोकना , अपराध और गैर कानूनी कार्यों को बढ़ावा देना , योजनाओं के नाम पर मिल बांट खाना , जैसी कितनी बातें बादस्तूर चल रही हैं। देश जल रहा है नीरो बंसी बजा रहा है। क्या देश सच में स्वर्ग बन चुका है जो आप रोज़ दीवाली मनाते हैं राम-राज्य की स्थापना की।

                 लोकतंत्र का अर्थ लोक का शासन होना चाहिये , लोक तो दर दर भटक रहा है और नेता और अधिकारी अपने दफ्तर में नहीं मिलते कई कई दिन तक। व्यस्त हैं कोई जश्न कोई समारोह आयोजित करने में , चिंता की कोई बात नहीं धन की कमी ऐसे काम में कभी रुकावट नहीं बनती। पैसा पानी की तरह बहाया जाता है , माले-मुफ्त दिले -बेरहम। ये खास लोग शाही शान से रहते हैं फिर भी कहते हैं हम जनता के सेवक हैं। भाषणों की खेती में वादों की फसल लहराती लगती है सरकारी सभाओं में और लोग तालियां बजाते हैं , अधिकतर उनके इशारों पर जो एकत्र कर के लाये थे , लुभावने वादे और स्वार्थ सिद्ध करने को। ताली बजाना जनता की मज़बूरी है अथवा आदत नहीं मालूम। मगर अगले दिन का अख़बार ध्यान से देखना , टीवी समाचार ठीक से सुनना , प्रमुख खबर सरकारी आयोजन की बातों की होती है मगर नीचे बाकी खबरें वही पुरानी जैसी दोहराई जाती हैं हर दिन , शहर गांव का नाम और स्थान अलग होता है। गंदगी की बात , खुले में शौच की बात , महिला से अनाचार की बात , भ्र्ष्टाचार की बात , सत्ता की उदासीनता की बात , हर समस्या यथावत है। आप कितनी शिकायत करते रहो उनके कानों पर जूं तक नहीं रेंगती आज भी। सरकार अंधी है और बहरी भी। खुद शोर मचाते हैं बहरे और अंधे लोग , सुन सकते नहीं देख सकते नहीं।
                                     दुष्यंत कुमार का शेर है :-
 
                               " यहां तो सिर्फ गूंगे  और बहरे लोग बसते  हैं ,
                               खुदा जाने यहां पर किस तरह जलसा हुआ होगा। " 

 मुझे आज के हालात पर अपनी ग़ज़ल का भी इक शेर याद आया है , वो भी पेश है :-

                           " तुम्हें ताली बजाने को सभी नेता बुलाते हैं ,
                             भले कैसा लगे तुमको तमाशा खूब था कहना। "

तमाशा दिखाने वाले बदल जाते हैं , तमाशों का आयोजन करने वाले वही रहते हैं प्रशासनिक लोग ,
तमाशाई भी वही होते हैं और वही रहते हैं तालियां बजाने वाले भी। लिबास बदला है बाहर से , भीतर बदन वही है  , गंदगी को छिपा कर खुशबू लगाई हुई है , मेकअप है मुखौटा है।                                      

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