जनवरी 20, 2013

POST : 285 आज सोचा ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

 आज सोचा ( कविता ) डॉ लोक सेतिया 

न सोचा कभी
न समझा
न कभी जाना
है बाकी रहा
अब तक
खुद को ही
मुझे पाना ।

किसलिये जीता रहा
मैं किसलिये मरता रहा
खो गया जीवन कहीं
क्या उम्र भर करता रहा
डर है भला कैसा मुझे
किस बात से डरता रहा
दुनिया में अपना कौन है
तलाश क्या करता रहा  ।

खुद को नहीं समझा कभी
क्यों काम ये करता रहा
खड़ा रहा नदी किनारे
गागर को नहीं भरता रहा
जीने से करना प्यार था
पर नहीं करता रहा ।

अब तो सोच ले ज़रा
हर पल ही तू मरता रहा
दिया किसे दुनिया ने क्या
दुनिया की बातें दे भुला
चलना है खुद के साथ चल
बस साथ अब अपना निभा
खुद से कर कुछ प्यार अब
सब दर्द दिल के मिटा ।

ऐसे है जीना अब तुझे
रहे तेरा दामन भरा
कहता यही है वक़्त भी
न लौट कर फिर आयेगा
पाना हो जो पा ले अभी
सब कुछ तुझे मिल जाएगा । 
 

 

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