जनवरी 25, 2013

POST : 291 हमें भी है जीना , नहीं रोज़ मरना ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

हमें भी है जीना , नहीं रोज़ मरना ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

हमें भी है जीना नहीं रोज़ मरना
ज़माना करे अब उसे जो है करना।

सियासत तुम्हारी मुबारिक तुम्हीं को
नहीं अब हमें हुक्मरानों से डरना।

लगे झूठ को सच बताने सभी अब
अगर सच कहेंगे सभी को अखरना।

किनारे उन्हीं के थी पतवार उनकी
हमें था वहां बस भंवर में उतरना।

बुझाते कभी प्यास पूरी किसी की
पिलाना अगर अब सभी जाम भरना।

लुभाना पिया को सभी चाहते हैं
है मालूम किसको हो कैसे संवरना।

हैं दुश्मन यहां सब नहीं दोस्त कोई
कभी भी यहां पर न "तनहा" ठहरना।  

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