सितंबर 12, 2012

POST : 128 सपने हमारे सच अगर होते नहीं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

सपने हमारे सच अगर होते नहीं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

सपने हमारे सच अगर होते नहीं
हम मुस्कुराते हैं कभी रोते नहीं ।

हैं तीरगी से प्यार करने लग गये
अब रात भर कुछ लोग हैं सोते नहीं ।

हो राह ग़म की या ख़ुशी की हो डगर
बस ज़िंदगी में नाखुदा होते नहीं ।

तुम मत समझ लेना उसे इक बागबां
जो फूल चुनते हैं मगर बोते नहीं ।

जीना यहीं है और मरना भी यहीं
पर ज़िंदगी में और समझौते नहीं ।

"तनहा" रहो आज़ाद उनकी कैद से
जैसे भी हो, अपनी खुदी खोते नहीं ।



कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें