जय भ्र्ष्टाचार की ( हास्य व्यंग्य कविता ) डॉ लोक सेतिया
है अपना तो साफ़ विचारहै लेन देन ही सच्चा प्यार ।
वेतन है दुल्हन
तो रिश्वत है दहेज
दाल रोटी संग जैसे अचार ।
मुश्किल है रखना परहेज़
रहता नहीं दिल पे इख्तियार ।
यही है राजनीति का कारोबार
जहां विकास वहीं भ्रष्टाचार ।
सुबह की तौबा शाम को पीना
हर कोई करता बार बार ।
याद नहीं रहती तब जनता
जब चढ़ता सत्ता का खुमार ।
हो जाता इमानदारी से तो
हर जगह बंटाधार ।
बेईमानी के चप्पू से ही
आखिर होता बेड़ा पार ।
भ्रष्टाचार देव की उपासना
कर सकती सब का उध्धार ।
तुरन्त दान है महाकल्याण
नौ नकद न तेरह उधार ।
इस हाथ दे उस हाथ ले
इसी का नाम है एतबार ।
गठबंधन है सौदेबाज़ी
जिससे बनती हर सरकार ।
वेतन दुल्हन रिश्वत दहेज 👌👍👍👍
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