सितंबर 11, 2012

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जय भ्र्ष्टाचार की ( हास्य व्यंग्य कविता ) डॉ  लोक सेतिया

है अपना तो साफ़ विचार
है लेन देन ही सच्चा प्यार ।

वेतन है दुल्हन
तो रिश्वत है दहेज
दाल रोटी संग जैसे अचार ।

मुश्किल है रखना परहेज़
रहता नहीं दिल पे इख्तियार ।

यही है राजनीति का कारोबार
जहां विकास वहीं भ्रष्टाचार ।

सुबह की तौबा शाम को पीना
हर कोई करता बार बार ।

याद नहीं रहती तब जनता
जब चढ़ता सत्ता का खुमार ।

हो जाता इमानदारी से तो
हर जगह बंटाधार ।

बेईमानी के चप्पू से ही
आखिर होता बेड़ा पार ।

भ्रष्टाचार देव की उपासना
कर सकती सब का उध्धार ।

तुरन्त दान है महाकल्याण
नौ नकद न तेरह उधार ।

इस हाथ दे उस हाथ ले
इसी का नाम है एतबार ।

गठबंधन है सौदेबाज़ी
जिससे बनती हर सरकार ।

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