जुलाई 06, 2012

POST : 04 औरत ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

           औरत    ( कविता ) डॉ लोक सेतिया 

तुमने देखा है
मेरी आँखों को
मेरे होटों को
मेरी जुल्फों को ,
नज़र आती है तुम्हें 
ख़ूबसूरती नज़ाकत और कशिश
मेरे जिस्म के अंग अंग में ।
 
तुमने देखा है 
केवल बदन मेरा 
प्यास बुझाने को 
अपनी हवस की ,
बाँट दिया है तुमने
टुकड़ों में मुझे
और उसे दे रहे हो 
अपनी चाहत का नाम ।

तुमने देखा ही नहीं 
कभी उस शख्स को 
एक इन्सान है जो
तुम्हारी ही तरह  ,
जीवन का हर इक 
एहसास लिये । 
 
 
जो नहीं है केवल एक जिस्म 
औरत है तो क्या ।



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