जून 24, 2012

POST : 03 किसे हम दास्तां अपनी सुनायें ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा "

किसे हम दास्तां अपनी सुनायें ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा "

किसे हम दास्ताँ अपनी सुनायें  
कि अपना मेहरबां किसको बनायें ।

कभी तो ज़िंदगी का हो सवेरा 
डराती हैं बहुत काली घटायें ।

यहाँ इन्सान हों इंसानियत हो
नया मज़हब सभी मिलकर चलायें ।
 
सताती हैं हमें तन्हाईयां अब
यहाँ परदेस में किसको बुलायें ।

हमारा चारागर जाने कहाँ है
कहाँ जाकर ज़ख्म अपने दिखायें ।

जिन्हें जीना ही औरों के लिए हो 
बताओ फिर ज़हर कैसे वो खायें ।

चमकती है शहर में रात "तनहा" 
अँधेरे गावं इक दिन जगमगायें ।
 

 

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