अजीब दास्तां है ये ( अंधेर नगरी चौपट राजा ) डॉ लोक सेतिया
दो घटनाएं अलग अलग होते हुए भी टेलीविज़न पर एक ही दिन चर्चा में आने से एक दूजे से जुडी हुई लगती हैं । सुबह इक राज्य में मुख्यमंत्री के आगमन पर पांच तारा होटल से मंगवाया नाश्ता उनकी जगह उन के ही स्टाफ को खिलाया गया जिसकी जांच विभाग ने घोषित की है हालाँकि जब इसका उपहास होने लगा तब सरकार ने खुद को उस से अलग रखने की कोशिश की । शाम को इक टीवी शो में इक बड़े अधिकारी को आमंत्रित किया गया था जिनके जीवन पर लिखी पुस्तक पर इक सफल फ़िल्म बन चुकी है । विडंबना की बात ये है कि कितनी मुश्किलों को पार कर अधिकारी बनने वाले जब वास्तविक कार्य की जगह सत्ताधारी नेताओं की आवभगत और उनके लिए तमाम प्रबंध करने में अपना वास्तविक कर्तव्य भूल जाते हैं तब लगता है की जैसे लोकतांत्रिक व्यवस्था के नाम पर राजा और गुलाम के किरदार दिखाई देने लगे हैं । क्यों जब कोई भी नेता किसी सरकारी कार्य पर किसी विभाग में आता जाता है तब तमाम सरकारी अमला उसकी सुविधा और जीहज़ूरी में लगे रहते हैं जबकि वो कोई महमान बनकर नहीं सरकारी काम से आये होते हैं । शायद असली कार्य भूल जाता है और अधिकांश ऐसी बैठकें औपचारिकता मात्र होती हैं , असली कामकाज तो कंप्यूटर फोन से ऑनलाइन अथवा वीडियो कॉन्फ्रेंस से होते रहते हैं या हो सकते हैं । हक़ीक़त तो ये है कि अधिकांश सरकारी अधिकारी कर्मचारी राजनेता सामन्य जनता का कोई भी कार्य करने को तैयार नहीं होते सिर्फ खास वर्ग या सिफ़ारिश रिश्वत वाले काम तुरंत किये जाते हैं । कोई भी कारोबारी जब किसी कार्य से कहीं जाता है तब खुद अपना सभी प्रबंध करता है खाने रहने का । कोई भी नेता या अधिकारी जब सरकारी कार्य करने जाते हैं तो क्या उनके पास आने जाने खाने पीने को धन नहीं होता है जो बाद में विभाग से वसूल किया जा सके व्यक्तिगत ढंग से बिना सरकारी तंत्र को बर्बाद किए । सिर्फ इस कार्य के लिए तमाम सरकारी विभाग के लोगों को लगाना जनता के लिए कितनी परेशानियां पैदा करते हैं । क्योंकि बड़े से बड़े पद पर आसीन लोग इस अनावश्यक अनुचित परंपरा के आदी हो चुके हैं इसलिए उनको उचित अनुचित की समझ नहीं आती है ।
ये सवाल कोई केवल पैसों का नहीं है बल्कि वास्तविकता तो यही है कि सांसद विधायक मंत्री मुख्यमंत्री से प्रधानमंत्री तक सभी प्रतिदिन अधिकांश सरकारी अमले ससाधनों को अपने लिए आरक्षित रखते हैं जिस से सामान्य नागरिक के साधारण कार्य भी होते ही नहीं आसानी से । आज़ादी के 77 साल बाद सामन्य लोगों की बुनियादी समस्याएं हल नहीं होने का प्रमुख कारण यही है । सत्ता के मद में उनको अपना जनसेवा करने का फ़र्ज़ याद ही नहीं रहता बल्कि खुद को शासक समझ कर व्यवस्था का दुरूपयोग करते हैं क्योंकि सभी इक जैसे हैं इसलिए कौन किस को क्या समझाए । विवेकशीलता का नितांत आभाव है और अहंकार तथा मनमानी करना किसी को अपराध क्या अनुचित नहीं प्रतीत होता है । देश में हर जगह यही हालत है जैसे अंधेर नगरी चौपट राजा की कहानियां सुनते थे सामने दिखाई देती हैं । नैतिकता की बात कोई नहीं करता और सादगीपूर्ण जीवन किसी को स्वीकार नहीं है सभी को शाहंशाह जैसा जीवन चाहिए भले उसकी कीमत साधारण जनता को जीवन भर चुकानी पड़ रही है समानता का सपना कभी सच नहीं होगा इस ढंग से ।
अगर कभी कोई इनसे हिसाब मांगता और जांच परख की जाती तब मालूम होता इतने सालों में सरकारी लोगों की अनावश्यक यात्राओं आयोजनों पर नेताओं की व्यर्थ की प्रतिदिन की सभाओं आयोजनों पर उनके विज्ञापनों प्रचार प्रसार पर जितना धन बर्बाद किया गया है उस से करोड़ों लोगों की बुनियादी सुविधाओं शिक्षा स्वास्थ्य इत्यादि की व्यवस्था संभव थी ,अर्थात इन्होने ये सब नहीं होने दिया जो ज़रूरी था । ये सभी सिर्फ सफेद हाथी जैसे देश पर बोझ बन गए हैं जिसको समाज देश कल्याण कहना छल ही है । इसका अंत होना ही चाहिए अन्यथा देश कभी वास्तविक लोकतंत्र नहीं बन सकता है लूट तंत्र बन गया है या बनाया गया है ।
शानदार आलेख....एक अनोखी गुलामी और कर्तव्य विमुखता की ओर ध्यान दिलाता लेख...उन्हें भी व्यापारी की तरह खुद प्रबन्ध करना चाहिए
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