अक्टूबर 22, 2024

POST : 1913 खुली आंखों से भगवान समझ आये ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

     खुली आंखों से भगवान समझ आये ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

बात इंसाफ़ से भी अधिक महत्वपूर्ण है उनको इंसाफ़ की देवी की आंखों से काली पट्टी हटानी पड़ी बाद में याद आया उन्होंने पहले जब कोई दुविधा थी ईश्वर से सही निर्णय करने की क्षमता देने की विनती की थी । भगवान का फ़ैसला भला कोई ग़लत साबित करने की बात कहने का साहस कर सकता है भगवान से कौन नहीं डरता लेकिन सभी का भगवान एक वही नहीं जाने कितने भगवान किस किस ने बनाये हुए हैं । एक महात्मा जूदेव जी जब पैसे लेते कैमरे पर पकड़े गए तब समझा रहे थे पैसा ख़ुदा तो नहीं लेकिन ख़ुदा कसम ख़ुदा से कम भी नहीं है । वो जो ऊपरवाला है कभी किसी को सामने दिखाई नहीं देता सुनते हैं हज़ारों करोड़ों वर्ष तपस्या करते थे तब दर्शन देते वरदान देते मनचाहा इस कलयुग में ज़िंदगी छोटी सी है क्या खबर कब सांस की माला टूट जाये इसलिए आवश्यकता थी ऐसा भगवान खोजा जाये जो ज़रूरत पड़ते ही खड़ा हो बचाने को नैया पार लगाने को । वास्तविक ईश्वर ने जब देखा दुनिया बदल गई है भगवान विधाता की कोई आधुनिक परिभाषा घड़ ली है तब उसको अपना अस्तित्व बचाना था भगवान भरोसे का अर्थ समझाना था । भगवान ख़ुद को किस किस से बचाते इतने ख़ुदा ईश्वर हैं कि भीड़ में अकेले घबराते मुश्किल था कैसे समझाते अपना परिचय पत्र पहचान कहां से जुटाते । ज़रा सामने तो आ रे छलिया छुप छुप छलने में क्या राज़ है , कोई बुलाता रहा नहीं सामने आये कौन किसको क्या दिखाए , उनको कहो ढूंढ लाये ।
 
इंसाफ़ क्या होता है सिर्फ अदालत में सरकारी दफ़्तर की बात नहीं है , संविधान में सभी को एक समान जीने के अधिकार शिक्षा रोज़गार का तमाम मौलिक अधिकार सामाजिक बराबरी अपनी बात कहने का ही नहीं असहमत होने विरोध करने का भी अधिकार स्वतंत्रता में शामिल है । जिन अधिकांश लोगों को बुनियादी सुविधाएं नहीं हासिल भूखे नंगे बिना छत बेघरबार है उनके लिए कैसा न्याय , वो तो न्यायालय की चौखट तक नहीं पहुंचते हैं । शायद अब तथाकथित न्याय करने वालों को देश की वास्तविकता दिखाई दे अगर वो भी अपनी आंखों से स्वार्थ और महत्वाक्षांओं की पट्टी उतार कर मानवीय संवेदना से काम लेना सीख लें ।  अमीरों का न्याय अलग गरीबों का न्याय अलग क्या यही कानून का शासन कहला सकता है , भगवान किसी को कुछ भी करने या नहीं करने को निर्देश नहीं देते कभी । आपका विवेक आपकी अंतरात्मा आपका ज़मीर आपको उचित अनुचित का भेद करना सिखाता है । भगवान के नाम पर गलत को सही नहीं साबित किया जाना चाहिए ।  आख़िर में इक पुरानी ग़ज़ल अपनी किताब ' फ़लसफ़ा ए ज़िंदगी ' से पेश है :-

फैसले तब सही नहीं होते ( ग़ज़ल ) 

डॉ लोक सेतिया "तनहा" 

 

फैसले तब सही नहीं होते
बेखता जब बरी नहीं होते ।

जो नज़र आते हैं सबूत हमें
दर हकीकत वही नहीं होते ।

गुज़रे जिन मंज़रों से हम अक्सर
सबके उन जैसे ही नहीं होते ।

क्या किया और क्यों किया हमने
क्या गलत हम कभी नहीं होते ।

हमको कोई नहीं है ग़म  इसका
कह के सच हम दुखी नहीं होते ।

जो न इंसाफ दे सकें हमको
पंच वो पंच ही नहीं होते ।

सोचना जब कभी लिखो " तनहा "
फैसले आखिरी नहीं होते ।
 
 कानून अब अंधा नहीं', न्याय की देवी की मूर्ति की आंखों से हटी पट्टी, हाथ में

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