आईने के सामने : पीत पत्रकारिता ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया
अब इस पर कभी कोई चर्चा ही नहीं होती , क्या पीत पत्रकारिता अब कोई समस्या नहीं रही या फिर इसको स्वीकार कर लिया गया है । जैसे कई साल पहले मलेरिया रोग को लेकर स्वस्थ्य विभाग ने दीवारों पर लिखवा दिया था मच्छर रहेंगे मलेरिया नहीं । डीडीटी का छिड़काव करवा विभाग चैन की नींद सोया रहा मगर मच्छरों ने उस संदेश को पढ़ा नहीं अनदेखा किया नतीजा यह हुआ कि मलेरिया और भी खतरनाक ढंग से वापस सामने खड़ा था जानलेवा बनकर । हमने भी पीत पत्रकारिता को लेकर आंखें मूंद ली हैं आशंका है कि किसी दिन ये भी इतना गंभीर रूप धारण कर ले कि पत्रकारिता के घर को बचाना मुश्किल हो जाये । जिनको इसका अर्थ नहीं मालूम उनको जानना होगा कि खबरें सही मकसद को छोड़ कर किसी अन्य कारण से छापना आर्थिक लाभ या अन्य किसी स्वार्थ की खातिर या किसी को खुश करने या परेशान करने के मकसद से करना पीत पत्रकारिता कहलाता है जैसे कोई अपराध किया जाये । खबरों को तोड़ मरोड़ कर अथवा झूठ को सच बना कर पेश करना भी शामिल है इस में ही । पत्रकारिता के पतन को लेकर अख़बार पत्रिका टीवी चैनल से सोशल मीडिया तक ख़ामोशी है , ये तो होता ही है ऐसा होना ही था इक दिन आखिर कब तक ज़माने भर का भलाई ईमानदारी का बोझ अकेले ढोते रहते , दुनिया जैसी ये भी वैसे बनते गए ।
अखबार इलेक्ट्रॉनिक मीडिया आम लोगों से लेकर प्रशासन सरकार राजनेताओं तक सभी को नैतिक मूल्यों ईमानदारी का सबक भले पढ़ाते रहते हैं खुद अपने लिए कोई सीमा स्वीकार नहीं करते और जब कोई उन पर सवाल खड़े करता है तो अभिव्यक्ति की आज़ादी खतरे में कहकर शोर करने लगते हैं । अजीब पैमाना है दुनिया की गलतियां सामने लाने का अधिकार है जब अपनी कमियां देखने की बारी आये तो कहते हैं हम खुद निर्धारित करेंगे क्या करना है । आरोप आप पर गवाही खुद आप की न्यायधीश भी खुद निर्णय क्या होगा भला ऐसा कहीं मुमकिन है निष्पक्षता से बताना । दो तरह के बाट नहीं हो सकते न्याय के तराज़ू पर पलड़े बराबर रखने को ये ज़रूरी है नैतिकता सभी पर लागू होनी चाहिए । अब अख़बार टेलीविज़न के अलावा सोशल मीडिया भी शामिल हो गया है बिना किसी मापदंड किसी अंकुश किसी मर्यादा के नागरिक को सूचना देने की आड़ में गुमराह करने का कार्य कर रहे हैं । यूट्यूब चैनल पर शीर्षक कुछ अंदर बात किसी विषय पर जैसा धोखा अक्सर देखते हैं संख्या बढ़ाने को झूठ का सहारा पागलपन है आत्मचिंतन करना छोड़ दिया है सभी ने लगता है । मीडिया का दुरूपयोग किया जाने लगा है किसी राजनीतिक दल का समर्थक बन कर उनका प्रचार या बचाव करने में भौंपू की तरह काम करना पत्रकारिता को रसातल में ले जाना है ।
सरकारी विज्ञापनों के मोहजाल में ये सभी कठपुतली बनकर किसी से धनलाभ या कोई अन्य सुविधा या कोई अनुकंपा पाने की खातिर नैतिक मूल्यों को ताक पर रख नतमस्तक हैं । विज्ञापन से लोग दर्शक प्रभावित हो कर छल कपट ठगी का शिकार हों या असली समझ नकली खरीद रहे हों क्या आपका कोई कर्तव्य नहीं है कि भ्रामक और गुमराह करने वाले विज्ञापन नहीं प्रकाशित करें जनहित को देखते हुए । टीआरपी और विज्ञापन का मोह आपको कितना नीचे ला सकता है क्या पैसा ही आपका भगवान है । अख़बार टेलीविज़न खुद अपने लिए विचारों की अभिवक्ति की स्वतंत्रता चाहते हैं लेकिन अपनी आलोचना पर तिलमिला उठते हैं बल्कि अपना बचाव नकारात्मक ढंग से करते दिखाई देते हैं अपनी गलती स्वीकार करना मंज़ूर नहीं उनको । किसी अख़बार पत्रिका का ऐसे विज्ञापन को किसी अलग ढंग से छापना या टीवी पर दिखाना जो प्रतिंबधित हो शराब जुआ जैसी सामाजिक बुराइयों को बढ़ावा देता हो कितना अनुचित है ।
पत्रकारिता में सभी विचारों की बात इक समान होनी चाहिए किसी तरफ इकतरफ़ा झुकाव उचित नहीं होता है । बदले की भावना से पत्रकारिता का उपयोग करना तो बेहद आपत्तिजनक है मूल्यहीन पत्रकारिता जैसे किसी बंदर के हाथ उस्तरा होना है कभी खुद भी घायल हो सकते हैं समाज को दहशत में डराना धमकाना क्या सभ्य समाज में होने दिया जा सकता है । बाज़ार में बिकना ही सफलता समझना और जो भी बिकता है उसे बेचना परोसना किसी अन्य कारोबार में हो सकता है पत्रकारिता में कदापि नहीं । जागरूक करना समाज को सही दिशा दिखलाना आपका पहला मकसद होना चाहिए न कि नंगापन बिकता है तो उसे बेचना । कभी पत्रकारिता ने बहुत सार्थक योगदान दिया है देश की आज़ादी की लड़ाई से लेकर बाद में राजनीति के पतन और सत्ता की मनमानी पर अंकुश लगाने में जिस से भटक कर सत्ता की चाटुकारिता और महिमामंडन करने लगे हैं । कहां से चले थे कितने महान आदर्शों को लेकर और आज किस जगह खड़े हैं चिंतन नहीं चिंता का विषय है गंभीर दशा लगती है । सामाजिक सरोकार जनहित देश कल्याण की अनदेखी कर जो पत्रकारिता होती है वो जिस डाल पर बैठे उसी को काटना है । आज आवश्यकता है स्वच्छ पत्रकरिता के मूल्यों को पुन: स्थापित करने के लिए किसी भगीरथ प्रयास की । आखिर में इक पुरानी ग़ज़ल पेश है ।
इक आईना उनको भी हम दे आये ( ग़ज़ल )
डॉ लोक सेतिया "तनहा"
इक आईना उनको भी हम दे आयेहम लोगों की जो तस्वीर बनाते हैं ।
बदकिस्मत होते हैं हकीकत में वो लोग
कहते हैं जो हम तकदीर बनाते हैं ।
सबसे बड़े मुफलिस होते हैं लोग वही
ईमान बेच कर जो जागीर बनाते हैं ।
देख तो लेते हैं लेकिन अंधों की तरह
इक तिनके को वो शमशीर बनाते हैं ।
कातिल भी हो जाये बरी , वो इस खातिर
बढ़कर एक से एक नज़ीर बनाते हैं ।
मुफ्त हुए बदनाम वो कैसो लैला भी
रांझे फिर हर मोड़ पे हीर बनाते हैं ।
Bahut khoob...पीत पत्रकारिता के बारे में जानकारी मिली...पत्रकारिता के गिरते स्तर को लेकर बढ़िया आलेख👍
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