निष्पक्षता का नितांत अभाव ( मीडिया- आंकलन ) डॉ लोक सेतिया
कभी अख़बार टेलीविज़न संचार माध्यम को लेकर विमर्श होता था बहस चिंता जताते थे कि पत्रकारिता में नैतिक आदर्श ख़त्म होते जा रहे हैं और पीत पत्रकारिता से लेकर अख़बार टीवी का उपयोग कुछ साधन संपन्न वर्ग द्वारा किया जाने लगा है । टीआरपी और विज्ञापनों का मोहजाल इस कदर हावी हो गया है कि लोग जो जागरूकता और सामाजिक सरोकार को लेकर आये थे भटक कर नाम शोहरत दौलत पुरुस्कार की दौड़ में अपना अस्तित्व अपनी पहचान खो बैठे हैं । इन सभी पर पहले बहुत पोस्ट लिखी हैं अख़बारों को भी भेजने का साहस किया है लेकिन आज वातावरण काफ़ी बदल चुका है और मीडिया में टीवी अख़बार सोशल साइट्स के अलावा यूट्यूब चैनल से इंटरनेट पर उपलब्ध पत्रिकाओं की इतनी भीड़ है कि आप उलझ जाते हैं । आज उनकी वास्तविकता पर चर्चा करते हैं , जब अधिकांश मीडिया बिक कर किसी की एकतरफ़ा जीहज़ूरी करने लगा तब पाठक दर्शक का मोहभंग होने लगा और उनको हर बात मनघड़ंत और झूठी लगने लगी । लेकिन टीवी चैनल और अख़बार वालों को इस से कोई मतलब नहीं था उनको अपना अपमानित होना स्वीकार था अगर बदले में धन दौलत ही नहीं सत्ता और धनवान उद्योगपतियों का आशिर्वाद मिलता है तब ।
ऐसे में कुछ लोग अलग अलग ढंग से फेसबुक व्हात्सप्प यूट्यूब इंस्टाग्राम आदि पर संवाद करने लगे और कुछ नहीं बहुत लोग लोकप्रियता मिलने पर इनको ही अपना आश्रय व्यवसाय समझने लगे । इसको सोशल मीडिया नाम से जाना जाता है , मैंने बहुत समय तक ऐसे तमाम लोगों की भाषा उनकी शैली उनका सामाजिक विषयों को लेकर सरोकार समझने की कोशिश की है । तब जाकर जो नतीजा सामने आया वो अचरज की बात है , प्रिंट मीडिया और टीवी चैनल जब एकतरफ़ा प्रचार करते दिखाई दिए तब ये विकल्प भी उनकी तरह से दूसरे छोर पर खड़ा नज़र आया । मतलब कोई जिनकी बढ़ाई महिमा का गुणगान चाटुकारिता कर रहा था इन्होने दूसरा पक्ष चुना उनकी आलोचना और किसी और की तारीफ़ करने में दोनों में होड़ दिखाई देने लगी । ख़ास कर चुनाव को लेकर यूट्यूब चैनल वाले साफ तौर पर किधर खड़े हैं नज़र आने लगे । उनका मकसद जनमत को प्रभावित करना अधिक था सच से परिचित करवाना बहुत कम सिर्फ इसलिए उनकी भी छवि साफ सुथरी नहीं बन पाई । कभी कभी तो हंसी आती जब कोई उन्हीं कुछ लोगों से वार्तालाप ही नहीं करता हर वीडियो में बल्कि उनकी बातचीत का लहज़ा तौर तरीका ऐसा लगता जैसे कोई फ़िल्मी अदाकार लिखी समझाई बात को दोहराता है । शायद कुछ समय लगता है ऐसे लोगों को समझने में लेकिन अधिक समय तक उनका भी प्रभाव रहता नहीं है । वास्तविक समस्या सोशल मीडिया की यही है कि इस में अकेले अलग अलग अपनी अपनी डफली अपना अपना राग जैसा है , उनके पास कोई तंत्र नहीं कोई कर्मचारी या सूचना देने वाले सहायक नहीं है उनकी आर्थिक सीमाएं भी हैं और मकसद इस से भी कोई पहचान बनाकर भविष्य में कमाई का साधन बनाना भी है ।
ऐसे लोग आवश्यकता पड़ने पर हर शहर से स्थानीय पत्रकारों ख़ास कर छोटे छोटे सांध्य समाचार पत्रों से संपर्क स्थापित कर जानकारी प्राप्त करते हैं । शायद उनको नहीं पता होता कि ऐसे लोगों की अपनी अपनी आर्थिक विवशताएं होती हैं जिन के लिए उनकी निष्पक्षता संभव नहीं होती है उनको किसी न किसी बल्कि कई बार कितने ही परस्पर विरोधी लोगों से मधुर संबंध रखने पड़ते हैं । लेकिन आपसी बातचीत या मिलने पर दोनों अपना अपना फायदा उठाना चाहते हैं इसलिए उनको इक दूजे को अमुक जगह कालोकप्रिय पत्रकार अथवा चैनल घोषित कर तारीफ का आदान प्रदान करना पड़ता है ।
प्रिंट मीडिया इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और सोशल मीडिया सभी का अपना अपना मकसद भी है और निजि स्वार्थ भी लेकिन देश समाज को सही जानकारी और वास्तविक समस्याओं घटनाओं की जानकारी सटीक एवं सत्य देना किसी की प्राथमिकता नहीं है । निष्पक्षता का नितांत अभाव है । ये सभी कुछ विशेष लोगों की ज़रूरत पसंद का ख़्याल रखते हैं पूरे समाज साधरण जनता जनसमस्याओं से उनको कुछ लेना देना नहीं है । ऐसा लगता है पत्रकारिता की नदी सूख चुकी है दो किनारों पर दोनों तरह की पत्रकारिता करने वाले खड़े हैं और बीच में सिर्फ तपती सुलगती रेत है किसी रेगिस्तान की तरह पानी की इक बूंद तक नहीं है । ये भी चमकती हुए रेत जो आकर्षित करती है मृगतृष्णा साबित होना उसकी नियति है ।
टी आर पी का मोहजाल....वास्तिक उद्देश्य से भटक गए हैं मीडिया के लोग👌👌👍👍
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