सितंबर 14, 2024

POST : 1885 बे-अदब लोगों से मुझको डर लगता है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया

  बे-अदब लोगों से मुझको डर लगता है ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया 

हर गली हर बस्ती अपना घर लगता है  
बे-अदब लोगों से मुझको डर लगता है । 

सारे आलम में पसरा हुआ है सन्नाटा
सहमा -सहमा सा हर इक बशर लगता है । 
 
थरथर्राहट सी होने लगी धरती में 
गिर गया आंधी में वो शजर लगता है । 
 
ओट लेकर छिपता फिर रहा है परिंदा 
ले गया है कोई काट पर लगता है । 
 
आजकल हमसे कोई बहुत रूठा है 
हम मना लेंगे इक दिन मगर लगता है । 
 
कब तलक दुनिया करती इबादत आखिर 
लग गया उठने हर एक सर लगता है ।
 
रात दिन जो रहता था खुला ' तनहा ' अब 
हो गया उस घर का बंद दर लगता है ।   



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