जून 01, 2024

ज़िंदा लाश की व्यथा ( व्यंग्य - कविता ) डॉ लोक सेतिया

       ज़िंदा लाश की व्यथा  ( व्यंग्य - कविता )  डॉ लोक सेतिया 

सब को बेजान लगता था शायद उस में जान बाक़ी नहीं है 
जीवंत लोकतंत्र का कोई भी लक्षण दिखाई नहीं दे रहा था
बस इक विभाग इसको कभी स्वीकार नहीं कर सकता था 
क्योंकि उस का होना नहीं होना निर्भर करता है इसी पर । 
 
चुनाव आयोग को देश राज्य राजनीति के अजब खेल को 
आयोजित करना पड़ता है सब खेलने वाले खिलाड़ियों की
चाहत सत्ता पाने सरकार बनाने की पूरी करने की कोशिश 
जनता इस खेल में भी सभी खेलों की तरह दर्शक होती है । 
 
जिसको लोकतंत्र नाम दिया है दो सिरों से बंधा हुआ शख़्स 
कुछ उधर से कुछ इधर से ज़ोर ज़बरदस्ती से खींचते उसको 
उनका खुला मैदान है बीच में तंग गली है जो उसको मिली है 
दोनों तरफ ऊंची दीवारों पर सलाखें ही सलाखें गड़ी हुई है ।  

ख़ुदगर्ज़ लोग उसको बेजान चीज़ समझ  लूट मार मचाते हैं 
आम लोग कभी किसी कभी किसी हाथ का हथियार बनकर 
आप इक आग में खुद अपनी ही मर्ज़ी से घर अपना जलाते हैं 
जाने किस स्वर्ग की ख़्वाहिश में ज़िंदा जल गले मौत लगाते हैं । 

ख़ुदकुशी की होगी क़त्ल हो नहीं सकता क़ातिलों का ढंग है 
एक मुर्दा जिस्म आख़िर कंधों पर जाता है जिस तरफ जाना
खुद बाद मरने कोई बोझ अपना ही ढो नहीं सकता कभी भी 
जश्न का अवसर है जीत जिस की भी लोकतंत्र रो नहीं सकता । 
 
पहले भी कई बार ऐसा होता रहा है कोई न कोई सिरफिरा 
किसी अदालत किसी थाने किसी सार्वजनिक सभा में जा 
विनती करता है दुहाई देता है कहीं ज़ख़्मी हालत में पड़ा है 
दर्द से कराहता कोई अपने को वो लोकतंत्र ये बताता हुआ । 
 
हर बार उसकी व्यथा को कोई नहीं समझता रहा पहले से
लेकिन इस बार किसी ने सोचा चलो कुछ नहीं तो इक बार 
इसको संविधान नाम वाले अस्पताल में दिखाते हैं ले जाके 
भली भांति जांच परख कर उसको स्वस्थ है या मृत बताएं । 
 
घायल था लहूलुहान था फिर भी उसको ईलाज से पहले 
अपनी पहचान बतानी थी और क्या ये कैसे किसने किया
कोई गवाह कोई साक्ष्य सबूत पेश कर सकते हो पूछा गया 
जनाब किस किस का नाम बताऊं कैसे खुद को मैं बचाऊं । 
 
राजनेताओं ने मुझे अपनी विवाहित पत्नी नहीं रखैल जान
समझा उपयोग किया मसला कुचला विवश कर कैद किया 
अखबार टीवी चैनल से सोशल मीडिया वालों तक सभी ने 
मुझे बचाने का वचन देकर मेरे साथ जो नहीं किया वो कम ।  

जनता बेचारी हर बार जाती हारी कोई समझा नहीं बिमारी
क्या बताए किसे जाकर क्या है जनता की नहीं है कोई भूल 
आम लोगों की खातिर हैं कांटे ही पग पग पर बिछे हुए हैं पर 
राजनेताओं अधिकारियों को मिलते हैं सभी गुलशन के फूल ।    

कोई योगी कोई संत महात्मा कोई रहम दिल दर्शन शास्त्री 
समझ गया ये कोई लावारिस है जिस को घर से बेघर किया 
मिलकर कुछ धनवान और चालाक लोगों ने स्वार्थी बनकर 
सभी दलों के नेताओं अधिकारियों न्याय करने वालों ने बस 
लोकतंत्र की विरासत को पाने को चुपचाप दफना दिया था । 
 
आपको किसी लाश की कब्र को देखा है कभी कहीं पर तो 
खामोश आहें और भीगापन अश्कों से गीली माटी का वहां 
आहट  सुनाता है अपने वर्तमान अतीत से भविष्य तक की 
आगाज़ सभी जानते हैं अंजाम अपना खुद नहीं जानता कोई । 
     
 भारत में लोकतंत्र की गिरावट का असर पूरी दुनिया पर पड़ेगा

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