फिल्म से पहचान हुई गांधी जी की ?( तरकश ) डॉ लोक सेतिया
इक अंग्रेज़ रिचर्ड एटनबरो अगर इक अंग्रेज अभिनेता बेन किंग्सले को गांधी का किरदार निभाने का अभिनय करवा इक फ़िल्म नहीं बनाते तो किसी को खबर ही नहीं होती कि भारत देश की धरती पर ऐसा कोई हाड़ मांस का पुतला इंसान की शकल में हुआ भी था । देश का प्रधानमंत्री जब इस तरह की बात कहता है तो समझ नहीं आता उस पर टिप्पणी करना भी चाहिए या फिर ऐसी समझ पर दया ही की जा सकती है । दुनिया में कोई दूसरी मिसाल नहीं है कि खुद को कष्ट देकर भी दुश्मन को पराजित ही नहीं किया जा सकता बल्कि देश को गुलामी से आज़ाद करवाया जा सकता है बिना कोई शस्त्र कोई हथियार अहिंसा के मार्ग पर चल कर ।अब जिनको कपोल कल्पनाएं ही समझ आती हैं उनको समझाना कठिन है कि हमारे प्राचीन इतिहास से कितनी शास्त्रों धार्मिक कथाओं गीता कुरआन रामायण श्रीमदभागवत पुराण बाईबल गुरुग्रंथसाहिब युग युग से सदियों से हमारे देश की पुरातन शिक्षा का अंश रहे हैं जिन से हमने कितना कुछ जाना ही नहीं जानने की जिज्ञासा भी पैदा होती रही है । जिस ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन अधिकांश दुनिया के देश रहे हों उस देश को अपने सब से बड़े दुश्मन की प्रतिमा अपने देश में लगानी पड़ी गांधी को आदर दे कर अपनी जाने कितनी गलतियों का प्रमाण विश्व को दर्शाने को इक सबक सिखाने को कि सत्य की डगर पर चलना संभव है । अब जिनको सच और झूठ का अंतर नहीं मालूम उनको गांधी को समझना कठिन ही है , और गांधीवादी सोच विचारधारा हर किसी को समझाई भी नहीं जा सकती । लेकिन उनसे इतना सवाल किया जाना ज़रूरी है कि सिनेमा का इतिहास सौ साल ही पुराना है लेकिन हमारे देश में नानक कबीर से लेकर अनगिनत महांपुरुषों साधुओं विचारकों की चर्चा हमेशा होती रही है । आप उल्टी गंगा बहाने की कोशिश भी मत करें क्योंकि जिस फ़िल्मी किरदारों से आपने सबक सीखा होगा वो असली महान नायकों के सामने बेहद फ़ीके और बौने हैं । फिल्म नगरी जिस डगर से इस जगह तक पहुंची है उस की शुरआत वहीं से हुई जहां से सामान्य लोगों की पसंद रहे बड़े बड़े आदर्शवादी किरदारों पर मूक फ़िल्में बनी और सफल हुईं क्योंकि वाणी के बिना ही दर्शक उनकी कथाओ कहानियों से खूब परिचित थे ।
सच तो ये है कि जिस कला ने देश समाज को जागरूक करने का बीड़ा उठाया था आज वो धन दौलत नाम शोहरत की अंधी दौड़ में पागल हो कर खुद भी भटक गया है और समाज को भी गलत दिशा दिखाने लगा है । आधुनिक सिनेमा आपको गुंडा मवाली और बड़े से बड़ा अपराधी बनाने की तरफ धकेलता है , शराफ़त इंसानियत और मानव कल्याण की बात अब कोई नहीं समझाना चाहता । जब तथाकथित महानायक कहलाने वाले शोहरत पाने वाले खिलाड़ी अभिनेता दर्शकों को हानिकारक और स्वास्थ्य से खिलवाड़ करने से मानसिक रोगी बनाने वाले कार्यों उत्पादों की सलाह खुद अपनी दौलत की हवस पूरी करने को देने लगे हैं तब सिनेमा जगत से उचित मार्गदर्शन की उम्मीद ही व्यर्थ है । ये तमाम लोग जो दर्शको को परोसते हैं खुद नहीं अपने लिए चाहते हैं , वास्तविक किरदार फ़िल्मी किरदार से विपरीत दिखाई देता है । खुद को नियम कानून से ऊपर समझ कर मनमानी करते हैं और आपको दिखलाते हैं कि न्याय की क्या परिभाषा है । खरी बात तो ये है कि धर्म राजनीति और प्रशासनिक व्यवस्था के साथ साथ सिनेमा जगत का भी पतन हद से अधिक होता गया है और आज तो ये गंदगी परोसने से लेकर गंदगी फ़ैलाने में कोई संकोच नहीं करते हैं । आजकल खुद ही विवाद पैदा करते हैं बदनाम होकर भी नाम होने की बात है ताकि दर्शकों को आकर्षित किया जा सके । सब से गंभीर चिंता की बात आधुनिक सिनेमा ने औरत को सिर्फ इक वस्तु बनाने का अनुचित कार्य किया है ।
ऐसा नहीं कि सिनेमा जगत ने दर्शकों को कुछ भी सार्थक नहीं दिया हो , बहुत शानदार है हमारे देश के फिल्म निर्माता निदेशक कहानीकार संगीतकार गीत कविता ग़ज़ल के कलमकारों का प्रयास भी एवं नूतन प्रयोग भी । उस को लेकर इक आलेख जो इक पत्रिका अक्षरपर्व , में प्रकाशित हुआ सिनेमा के अनोखे सफर की दिलकश दास्तां जिस का लिंक पोस्ट के अंत में दिया जाएगा पढ़ने को , लेकिन शायद वो पुराने लोग किसी और मिट्टी के बने थे जैसे महात्मा गांधी जिनको देश समाज की दुःख दर्द की चिंता थी व्यक्तिगत हितों से पहले । पिछले कुछ सालों में फिल्मों का समाज पर जो असर हुआ है उस का परिणाम समाज में अपराध भ्र्ष्टाचार अनैतिकता का हुआ विस्तार है । अपने कर्तव्य को भुलाकर समाज को प्रदूषित करने के आपराधिक आचरण के लिए उनका दोष क्षमा नहीं किया जा सकता है । ये विडंबना ही है कि सिनेमा जगत भी अपने पुरखों की विरासत को संभालने में नाकाम रहा है और सामाजिक सरोकारों की बात को छोड़ उनका ध्यान ऐसे विषयों का चयन करने पर रहा है जो मनोरंजन के नाम पर व्यभिचार को बढ़ावा देने का काम करते हैं । गांधी जैसे महान लोग उनकी किसी फ़िल्म का किरदार होना तो दूर बल्कि उन्होंने गांधी के नाम को घटिया कॉमेडी बनाकर अनुचित कार्य किया है । उनकी कहानी में गांधी कोई दिमागी खलल या केमिकल लोचा है । कभी कभी लगता है जैसे समाज को गांधी जी की राह से किसी क़ातिल गोडसे की सोच की तरफ ले जाने की कोशिश की जा रही है । गांधी जी देश की जनता में शरीर में आत्मा की तरह बसते हैं उनको किसी फ़िल्मी किरदार की आवश्यकता नहीं है ।
सिनेमा के अनोखे सफ़र की दिलकश दास्तां ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया , का लिंक नीचे दिया है
https://blog.loksetia.com/2013/12/blog-post_7.html
गांधी से डरा हुआ स्व घोषित ईश :)
जवाब देंहटाएंगांधी पर इस तरह की टिप्पणी सचमुच कम समझ को दिखातीहै। गांधी दर्शन को पूरा विश्व पढ़ता है सीखता है।
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