मई 17, 2024

POST : 1821 आईने की दास्तां ( दर्द भी दवा भी ) डॉ लोक सेतिया

      आईने की दास्तां ( दर्द भी दवा भी ) डॉ लोक सेतिया

    कैसे बताऊं और किस किस को बताऊं कि मैं कोई सामान नहीं इक इंसान हूं , ज़माने से नहीं मैं खुद अपने आप से परेशान हूं । थोड़ा आसान भाषा में बताऊं तो पानी की तरह तरल होता तो जो जिस जगह जैसा चाहता मैं उसकी पसंद से अपना आकार बना लेता , सभी मुझे अपने जिस भी बर्तन में भरते मैं उनकी ज़रूरत अनुसार आसानी से उनकी सुविधा से वैसा हो जाता । कोई पत्थर जैसा होता तो लोग मुझे तोड़ कर या तराश कर कुछ भी बना लेते अच्छा बुरा कुछ भी भगवान चाहे शैतान की शक़्ल देते कोई फर्क नहीं पड़ता । हवा होता तो भी शोर नहीं करता ख़ामोशी से सभी को कोई झौंका बन होने का आभास करवाता रहता कभी शीतल कभी तपिश कभी गीलापन और मैं धीरे धीरे सभी में समा जाता किसी को एहसास ही नहीं होता मेरे होने का नहीं होने का होते हुए भी । शायद ये कोई अजनबी दौर है जिस में लोग खुद अपनी सोच अपनी समझ अपने अनुभव से नहीं जाने कितनी और बातों से मुझ से ही नहीं हर किसी से अनावश्यक परेशान होते हैं । कहते हैं किसी ने बताया किसी से सुना लोग आपको बुरा समझते हैं नापसंद करते हैं खुद जानते ही नहीं उनको मैं अच्छा बुरा लगता हूं तो क्या कारण है । कैसा समाज है ये जिस में सभी दुनिया की गलतियां ही ढूंढते हैं अच्छाई उनको दिखाई देती ही नहीं क्योंकि अच्छाई से किसी को कोई मतलब ही नहीं हर किसी की बुराई की चर्चा करने से अपने आप को बेहतर साबित करना चाहते हैं जबकि ज़माने में कोई भी इंसान हमेशा एक जैसा होता नहीं है । एक ही समय एक ही बात से कोई खुश होता है कोई नाराज़ सभी की अपनी इक अलग राय होती है भला सभी को कुछ पसंद आये ये कैसे हो सकता है जब वही कभी मीठा कभी नमकीन पसंद करते हैं ।
 
लोग कभी लिबास बदलते हैं कभी चेहरे भी बदलते रहते हैं तो कभी कोई नकाब लगा लेते हैं , मुझ में अपना अक़्स देख कर ख़फा होते हैं कि उनकी सूरत कितनी खूबसूरत है लेकिन मुझ को देख कर जैसी चाहते हैं दिखाई नहीं देती । आईने को दोष देते हैं कभी पत्थर से चूर चूर कर देते हैं मेरा नसीब है कि टूट कर भी हर टुकड़ा असली तस्वीर ही दिखलाता है । आईनाख़ाना है ये शहर ये समाज जिस में जिधर नज़र जाती है हर देखने वाले को खुद ही खुद नज़र आता है । अजब दौर है हर किसी के हाथ में पत्थर ही पत्थर हैं और हर शख़्स आईने को तोड़ने को बेताब है फूल भी खुशबू से ख़फ़ा ख़फ़ा लगते हैं । हर ज़र्रा आफ़ताब है हर जुगनू माहताब है हर किसी को मिला अज़ाब है ज़ालिम को मिला अम्न का ख़िताब है सावन में बरसती आग है । 
 
 

अपनी सूरत से ही अनजान हैं लोग ( नज़्म ) डॉ  लोक सेतिया 

अपनी सूरत से ही अनजान हैं लोग
आईने से यूँ परेशान हैं लोग ।

बोलने का जो मैं करता हूँ गुनाह
तो सज़ा दे के पशेमान हैं लोग ।

जिन से मिलने की तमन्ना थी उन्हें
उन को ही देख के हैरान हैं लोग ।

अपनी ही जान के वो खुद हैं दुश्मन
मैं जिधर देखूं मेरी जान हैं लोग ।

आदमीयत  को भुलाये बैठे
बदले अपने सभी ईमान हैं लोग ।

शान ओ शौकत है वो उनकी झूठी
बन गए शहर की जो जान हैं लोग ।

मुझको मरने भी नहीं देते हैं
किस कदर मुझ पे दयावान है लोग ।  
 
 

 


5 टिप्‍पणियां:

  1. सच कहा पत्थर से लोग तोड़ दें तो भी हर टुकड़ा सच ही दिखाता है...👌👍

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  2. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों के आनन्द में" रविवार 19 मई 2024 को लिंक की जाएगी ....  http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ... धन्यवाद! !

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