डॉ लोक सेतिया की पुस्तक ' शून्यकाल का आलाप ' की समीक्षा
समीक्षक : डॉ . ज्ञानप्रकाश 'पीयूष' , आर .ई . एस .
आलोच्य कृति : शून्यकाल का आलाप
लेखक : डॉ. लोक सेतिया
विधा : हास्य-व्यंग्य
प्रकाशक : श्वेतवर्णा प्रकाशन,नई दिल्ली
प्रथम संस्करण : 2023.
पृष्ठ : 95, मूल्य : ₹ 199 / -(हार्ड बॉण्ड)
" ब्रह्मास्त्र की तरह अमोघ व असरदार हास्य-व्यंग्य रचनाएँ "
फतेहाबाद ( हरियाणा ) के सुप्रतिष्ठित नामचीन वरिष्ठ साहित्यकार
डॉ.लोक सेतिया किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं । आप ग़ज़ल, हास्य-व्यंग्य,
कविताएँ ,कहानियाँ , नज़्म आदि विविध विधाओं में अनवरत रूप से सृजनरत हैं ।
आपकी हास्य-व्यंग्य प्रधान प्रखर रचनाओं को पढ़कर हरिशंकर परसाई , श्री लाल
शुक्ल , रवीन्द्र त्यागी , के.पी. सक्सेना प्रभृति विद्वानों की स्मृति सहज
रूप से मानस-पटल पर अंकित हो जाती है ।
' शून्यकाल का
आलाप ' हास्य-व्यंग्य रचनाओं का ऐसा विलक्षण संग्रह जो डॉ लोक सेतिया के
प्रौढ़ एवं परिष्कृत व्यक्तित्व को और अधिक प्रखर व कीर्तिवान बनाता है ।
इसमें कुल 28 हास्य-व्यंग्य रचनाएँ क्रमशः शून्य का रहस्य , झूठे कहीं
के ,मरने भी नहीं देते , तलाश लोकतंत्र की ,संपादक जी , लौट के वापस घर को
आए ,मृत्युलोक का सीधा प्रसारण , देवी देवताओं का बाज़ार ,ज़िन्दगी के दो
किनारे ,बेघर हैं इस घर के मालिक ,भगवान का पेटेंट ,मूर्ख शिरोमणि , लेखक से
बोले भगवान , विष्णुलोक का टीवी चैनल ,आपके बिना साजन , भगवान से हिसाब
मांगता है कोई ,चौकीदारों का एक समान वेतन और
रैंक ,खज़ाना मिल गया , क़यामत आ रही है , काला धन मिल गया है , बिक रहा है
आतंकवाद , ईमानदार उम्मीदवार की खोज , आदर्श आचार संहिता , कलयुग की
आत्मकथा ,सोमरस से कोरोना का इलाज़ , सुनो इक सच्ची कहानी , आत्मनिर्भरता की पढ़
लो पढ़ाई , और काला धन से कोरोना तक , आदि अंतर्निहित हैं । इनमें अनुभूतिपरक
सामयिक सत्य के यथार्थवादी स्वरूप व जीवनगत विसंगतियों के विकृत रूप पर
हास्य व व्यंग्यात्मक शैली में सारगर्भित विवेचन प्रस्तुत किया गया है ।
कालाधन , आदर्श
आचार संहिता , आतंकवाद , मृत्युलोक का सीधा प्रसारण , आपके बिना साजन , लौट कर
वापिस घर को आए , और आत्मनिर्भरता की पढ़ लो पढ़ाई आदि रचनाओं में तीक्ष्ण
कटाक्ष देखते ही बनते हैं । विविध विषयों पर किए गए ये कटाक्ष ब्रहास्त्र की
तरह अमोघ एवं असरदार हैं , तथा हास्य-परिहास पूर्ण रचनाएँ मन को आनन्द रस
से आप्लावित कर अभिभूत कर देती हैं । रचनाओं में संवेदनाओं की
गहराई , अनुभूति की सच्चाई , शिल्प की उत्कृष्टता , कल्पना का वैभव तथा
मनोविज्ञान का ठाठ दृष्टिगोचर होता है ।
' शून्य
का रहस्य ' व्यंग्य में शून्य के महत्त्व को प्रतिपादित करते हुए लेखक का
कहना है - "हम सौ करोड़ लोग मात्र नौ बार लिखा शून्य का अंक हैं ,जब तक हमारे
आगे कोई एक खड़ा नहीं होता , किसी काम के नहीं हैं हम । इसलिए समझदार लोग
प्रयास करते हैं कि वे शून्य से बड़ा कोई अंक हो जाएं और हम जैसे कई शून्य
उनके पीछे खड़े रहकर उनका रुतबा बुलंद करें ।" पृष्ठ-11.
" झूठे
कहीं के " में भी व्यंग्य की धार बड़ी प्रखर है । तलाक़ के मुकदमें में माहिर
वकील साहब तलाक़ के फ़ायदे समझाते हुए मुझे बता रहे थे कि सरकार ऐसा क़ानून
बनाने जा रही है कि तलाक़ लेने पर पत्नी को पति की अर्जित सम्पत्ति के
साथ-साथ उसकी पैतृक संपत्ति से भी बराबर का हिस्सा मिलेगा । तभी उनकी
धर्मपत्नी आ गई । पत्नी को देख , वकील साहब की हालत देखने लायक़ थी । उनकी पत्नी
मेरी तरफ़ मुख़ातिब हो कर बोली ," कि मैं जानती हूँ कि ये किस खुशी में मिठाई
बाँटते फिर रहे हैं , इसलिए आज इनके सामने ही आपसे पूछने आई हूँ कि मुझे भी
बताओ कोई ऐसा वकील जो इनसे मेरा तलाक़ करवा सके । मुझे भी देखना है कि दूसरों
का घर बर्बाद करने वाले का जब खुद का घर बर्बाद हो तो उसकी कैसी हालत होती
है ?....... आप ही बता दो कोई वकील जो मुझे भी यह सब दिलवा सकता हो , मिठाई
में भी खिला सकती हूँ आपको । " यह सुनते ही वकील साहब का चेहरा देखने के
काबिल था । उनके तेवर झट से बदल गए थे , अपनी पत्नी का हाथ पकड़ कर बोले , "आप
तो बुरा मान गई , भला आपको कभी तलाक दे सकता हूँ मैं । मैं आपके बिना एक दिन
भी नहीं रह सकता आप ही मेरा प्यार हैं , मेरी जिंदगी हैं , मेरी दुनिया है ,
मेरा जो भी है सभी आपका ही तो है । " पृष्ठ-16.
व्यंग्य कला में निष्णात डॉ.लोक सेतिया की समस्त हास्य व्यंग्य रचनाएं एक से बढ़कर एक हैं ,सभी लाज़वाब हैं बानगी
के रूप में ' लौट के वापस घर को आये ' से एक झलकी द्रष्टव्य है - " जब हमारे
नगर में सचिवालय भवन बना तब लगा कि वहाँ सरकार के सभी विभागों के दफ्तर
साथ - साथ होंगे तो जनता को आसानी होती होगी , काम तुरंत हो जाते होंगे । वहाँ
कुछ पढ़े-लिखे सभ्य लोग बैठे होंगे जन सेवा का अपना दायित्व निभाने के लिए ।
मगर देखा , वहां तो अलग ही दृश्य था , जानवरों की तरह जनता कतारों में छटपटा
रही थी और सरकारी बाबू इस तरह पेश आ रहे थे जैसे राजशाही के कौड़े बरसाए
जाते थे । सरकारी कानून का डंडा चलाया जा रहा था और लोगों को कराहते देख , कर्मचारी ,
अधिकारी आनंद ले रहे थे , उन्हें मजा आ रहा था । कुर्सियों पर , मेज पर और
अलमारी में रखी फाइलों पर बेबस इंसानों के खून के छींटे साफ नज़र आ रहे थे ।
कुछ लोग इंसानों का लहू इस तरह पी रहे थे जैसे सर्दी के मौसम में धूप में
गर्म चाय - कॉफी का लुफ़्त उठा रहे हों , लोग चीख रहे थे ,चिल्ला रहे थे मगर
प्रशासन नाम का पत्थर का देवता बेपरवाह था । उस पर रत्ती भर भी असर नहीं हो
रहा था । लगता है वो अंधा भी था और बहरा भी। "पृष्ठ-26.
संग्रह की अन्य समस्त हास्य-व्यंग्यपरक रचनाएँ उकृष्ट एवं उपादेय हैं । ये कथ्य ,शिल्प , संवेदना ,शीर्षक , सम् प्रेषणीयता
प्रयोजन , अभिप्रेत एवं उद्देश्य की दृष्टि से प्रभविष्णु हैं । भाषा में
बोधगम्यता , और शैली का चुटीलापन पाठकगण को पठन के लिए आकृष्ट करता है । डॉ.
लोक सेतिया प्रणीत शून्यकाल का आलाप कृति हर दृष्टि से स्तुत्य एवं
श्लाघनीय है । पठनीय और संग्रहणीय है । शुभकामनाओं सहित ।
डॉ. ज्ञानप्रकाश 'पीयूष',आर.ई.एस.
पूर्व प्रिंसिपल,
साहित्यकार एवं समालोचक
1/258,मस्जिदवाली गली,तेलियान मोहल्ला,
नजदीक सदर बाजार ,सिरसा -125055(हरि.)
मो.94145-37902, 70155-43276
ईमेल- gppeeyush@gmail.com
Bdhai sir ek uttam pustak ki ati uttam samiksha 👌👍
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