फ़रवरी 05, 2024

जनता के नेता कहां हैं ( कड़वी बात ) डॉ लोक सेतिया

      जनता के नेता कहां हैं ( कड़वी बात ) डॉ लोक सेतिया    

आपको हैरानी हुई होगी शीर्षक पढ़ कर जबकि सच्चाई यही है , राजनेताओं के पास जनता है , जब भी उनको ज़रूरत होती है ढूंढना नहीं पड़ता , जब जैसे जहां चाहते हैं  , जनता की भीड़ खड़ी तालियां बजाती है । लेकिन कभी जनता को आवश्यकता पड़ जाए तो समस्या खड़ी हो जाती है , समझ नहीं आता कौन जनता की बात सुनेगा उसकी सहायता करना तो बाद की बात है । आपको बताते हैं कभी नेता किसी दल किसी परिवार किसी वर्ग किसी संघठन के नहीं हुआ करते थे जनता जिनको खुद अपना नायक मानती थी तभी वो लोग नेता कहलाते समझे जाते थे । ऐसे लोग मतलब पड़ने पर नहीं जनता से संपर्क करते थे बल्कि जब भी लोगों को कोई समस्या होती वो खुद आया करते थे अपना फ़र्ज़ निभाने बदले में वोट या सत्ता की अपेक्षा नहीं रखते थे । आपको ये कोई सपना लगता हो मुमकिन है क्योंकि आजकल जनता की सेवा देश की सेवा कोई नहीं करना चाहता है बल्कि इस का तमगा लगाकर धन दौलत नाम और सत्ता का मनचाहा उपयोग करने की कामना राजनीति कहलाती है । इस राजनैतिक दल उस राजनैतिक दल के नेता कार्यकर्ता सभी मिलते हैं जनता का नेता होना कोई नहीं चाहता है । तभी उनको सभाएं रैलियां करने पर कितने ही तौर तरीके संसाधन उपयोग करने पड़ते हैं , करोड़ों रूपये इश्तिहार और जनता की भीड़ जमा करने की खातिर खर्च करने पड़ते हैं । विडंबना इस से बढ़कर ये भी है कि उनकी बात कोई क्या समझे जब खुद उनको समझ ही नहीं होती कि जनता वास्तव में चाहती क्या है । प्रयोजित भीड़ की तालियां सोशल मीडिया पर झूठे दावे और नकली लोकप्रियता से खुद और समाज को छलने का नाम राजनीति बन गया है । 
 
धन दौलत शोहरत और ताकत पाने की ऐसी अंधी दौड़ में तमाम लोग शामिल हैं और भागते भागते आखिर रेगिस्तान में मृगतृष्णा से प्यासे ही मरने को अभिशप्त हैं । राजनीति साहित्य कला और बुद्धिजीवी शिक्षित लोग समाज की भलाई उसको बेहतर बनाने की जगह अपने स्वार्थ की ख़ातिर और भी गंदा कर अपने अनुचित कार्यों पर शर्मसार होने के बजाय गर्व करने लगे हैं । इक आसान ढंग है ख़ुद की गलती को छुपाने की जगह कौन नहीं करता ऐसा सभी नहीं तो अधिकांश लोग यही करते हैं कहकर कुतर्क घड़ते हैं । जनता भी थक चुकी है हार मान ली है कि इस एक सौ तीस करोड़ की आबादी में निर्वाचित करने को भरोसा करने को एक प्रतिशत लोग भी नहीं हैं ईमानदारी से देश समाज को समर्पित होकर जनता का कल्याण करने को । हर किसी को अपना ही कल्याण करना है और उस की ख़ातिर नीचे से नीचे गिरने में संकोच नहीं है । ऊंचे ऊंचे पद पाकर भी लोग अपने कर्तव्य का पालन नहीं करते बल्कि पद पर बने रहने को ही महत्वपूर्ण समझने लगते हैं । देश के माननीय सांसद विधायक और सत्ताधरी शासक बनकर उस की गरिमा को कायम नहीं रखते तथा मर्यादा के विपरीत आचरण करते हैं । बड़े अधिकारी सरकार शासक दल की कठपुतली बनकर देश के प्रति ईमानदारी निभाना छोड़ अपने अधिकारों का अनुचित उपयोग करते हैं । अदालत न्याय पालिका से सुरक्षा करने को नियुक्त लोग सत्ता से गठजोड़ कर जनता से निरंतर होते अन्याय को देख कर भी कुछ नहीं करते हैं । संविधान की शपथ देशसेवा की कसम सब भुलाकर राजनेता अधिकारी पुलिस अदालत जनता पर ज़ुल्म करते हैं लूट कर पैसा जमा कर ऐशो आराम से रहते हैं हर योजना हर तथाकथित विकास कार्य से रिश्वत या कमीशन पाकर । 
 
जिन महान देशभक्त लोगों ने देश की आज़ादी की खातिर बलिदान दिए और जिन्होंने आज़ादी के बाद देश समाज को शानदार बनाने को जतन किए खुद अपने लिए कुछ भी नहीं चाहा , आज उनको हमने भुला दिया है । आज का शासन प्रशासन पुलिस न्यायालय सभी निरंकुश और संवेदनारहित हो चुके हैं जिनको लगता ही नहीं कि उचित क्या अनुचित क्या है । अपराधी और विवेकहीन लोग पैसे और बाहुबल का उपयोग कर सत्ताधरी बन कर साबित कर रहे हैं कि सत्यमेव जयते अब आदर्श नहीं रहा है बल्कि झूठ की जय-जयकार होने लगी है । सब से खेदजनक बात ये है कि जिनको समाज को रौशनी दिखलानी थी वही अंधियारे के पुजारी बनकर रात को दिन साबित कर रहे हैं आज की राजनीति पर कुछ दोहे उपयुक्त हैं पढ़ कर समझ सकते हैं कि हम कहां खड़े हैं ।  
 
लेकिन उस से पहले आपको बताना चाहता हूं कि हमारे देश में हमने बहुत अच्छे राजनेता अधिकारी और समाजसेवक देखे हैं उनसे मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ है और हम उन की बातों को भाषण को सुनने जाते थे अपनी ख़ुशी से किसी के बुलावे से नहीं । गांव की चौपाल में साथ बैठ कर बहुत खुले मन से चर्चा होती थी और उनको खरी खोटी सुनाने में ज़रा भी हिचकिचाहट नहीं करते थे आम लोग । बड़ी सभाओं में भी कभी कोई हाथ खड़ा करता कुछ कहने को तब भी जनता से जुड़े नेता बाद में उनको मंच के समीप आने को कहते और उसकी समस्या सुनते थे । देश का प्रधानमंत्री राज्य का कोई मुख्यमंत्री अथवा कोई सरकारी अधिकारी शिकायत का पत्र लिखने पर ध्यान देते और जवाब दिया करते थे । आम और बेहद ख़ास वीवीआईपी जैसा चलन कब क्यों शुरू हुआ समझ नहीं आया , क्यों अपने ही देश की जनता से राजनेताओं अधिकारियों को खतरा लगने लगा । आजकल नेता अधिकारी धनवान उद्योगपतियों से कुछ जाने पहचाने टीवी फिल्म वालों से मिलते हैं जनता से कभी नहीं मिलना चाहते । जनता उनकी है मगर तभी जब उनकी मर्ज़ी हो तब भाषण सुन कर ताली बजाने वोट देकर कुर्सी पर बिठाने की ज़रूरत पड़ने पर , उस के बाद जनता को उस के हाल पर छोड़ना उनकी आदत बन गई है । राजनेता चुनाव लड़ते हैं जिन से खूब सारा धन चंदे में लेकर बाद में उनकी खातिर सब करते हैं , जैसे किसी का ज़मीर कोई खरीद लेता है तो उसे खरीदार की मर्ज़ी माननी पड़ती है । अर्थात जनता चुनती है लेकिन नेता उनके नहीं होते बल्कि उनकी निष्ठा धनवान कारोबार करने वाले लोगों के प्रति पूर्णतया रहती है । अब दोहे पढ़ सकते हैं :-  
 

देश की राजनीति पर वक़्त के दोहे ( डॉ  लोक सेतिया ) :-

नतमस्तक हो मांगता मालिक उस से भीख
शासक बन कर दे रहा सेवक देखो सीख ।

मचा हुआ है हर तरफ लोकतंत्र का शोर
कोतवाल करबद्ध है डांट रहा अब चोर ।

तड़प रहे हैं देश के जिस से सारे लोग
लगा प्रशासन को यहाँ भ्रष्टाचारी रोग ।

दुहराते इतिहास की वही पुरानी भूल
खाना चाहें आम और बोते रहे बबूल ।

झूठ यहाँ अनमोल है सच का ना  व्योपार
सोना बन बिकता यहाँ पीतल बीच बाज़ार ।

नेता आज़माते अब गठबंधन का योग
देखो मंत्री बन गए कैसे कैसे लोग ।

चमत्कार का आजकल अदभुत  है आधार
देखी हांडी काठ की चढ़ती बारम्बार ।

आगे कितना बढ़ गया अब देखो इन्सान
दो पैसे में बेचता  यह अपना ईमान । 
 

 आओ फिर से दिया जलाएं | Aao fir se diya jalaye | अटल बिहारी वाजपेयी कविता |  Basant Bhardwaj - YouTube

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