हरि अनंत हरि कथा अनंता ( निबंध ) डॉ लोक सेतिया
हुआ नहीं होना है , आधुनिक अवतार की बात है जब भी कोई अवतार धरती पर अवतरित होता है पहले से उसकी एक नहीं अनेक कथाएं प्रचलित होने लगती हैं । कुछ ऐसे ही धरती पर भगवान का अवतार बनाने की बात होने लगी है इंसान के हाथों से । जिनका ज़िक्र है उनकी पत्नी विशेष अवसर पर उनकी सजावट उनकी वेशभूषा को लेकर चिंतन मनन कर रही है । इस बार कोई कसर बाक़ी नहीं रहनी चाहिए मन ही मन कल्पना करने लगी है शायद पत्थर बनकर भी हमारा दोनों का साथ हमेशा कायम रहे । उनकी इक सखी सवाल कर उनको तंग करने लगी है अजब अजब बातें करती है ये क्या बोली हैरान हुई आका , तो मुकरने लगी है । पत्नी की चिंता मुख पर उभरने लगी पिया पिया करती सजने संवरने लगी आये जब पति तो उनसे मन की दुविधा बताने लगी । इक बात मुझे समझ नहीं आती है कोई सखी पूछ रही थी आपके प्राण मुझ में बसते हैं लेकिन सुना धरती पर किसी बड़ी शानदार ईमारत में किसी पत्थर की प्रतिमा में कोई पूजा पाठ कर उस प्रतिमा को साक्षात दर्शन देती प्राणवान मूर्ति बना सकते हैं । भला आप सभी को जीवन देने वाले को कोई इंसान क्या जिस घड़ी वो निर्धारित करे इस तरह संचालित कर सकता है आपको किसी शुभ अशुभ घड़ी का कोई प्रभाव पड़ सकता है । आपके प्राण कहां हैं कब आपका निवास किस हृदय में है कोई भी नहीं जानता यहां तक मुझे भी नहीं मालूम आपके प्राणों में मैं बसती हूं और मेरे रोम रोम में बस आप ही आप बसे हुए हैं ये भी सिर्फ आपको पता होता है ।
प्रभु मुस्कुरा दिए कहने लगे जिनको ईश्वर की कोई पहचान नहीं उन की नादानी को लेकर सोचना किसलिए । तुम जानती हो मैं मन मंदिर में निवास करता हूं किसी मूर्ति किसी पत्थर की प्रतिमा का कभी मन नहीं होता है मन समझती हैं आप । मैंने कभी मन की बात जगज़ाहिर करना उचित नहीं समझा है मेरे मन के दर्पण में कब किस की छवि है मुझे छोड़ किसी को नहीं खबर होती कभी । सबसे पहली बात संसारिक सुखों को त्याग कर कर्तव्य मार्ग पर चलने वाले मेरे मन में बसते हैं और उन सभी में मेरा निवास रहता है । जिन भक्तों के भीतर मैं हूं उनको किसी मंदिर मस्जिद गुरूद्वारे गिरिजाघर भटकना नहीं पड़ता । जो किसी मतलब की खातिर मेरे दरवाज़े पर आते हैं उनको मुझसे नहीं अपनी कामनाओं से संबंध बनाना होता है , ज़रा सोचो मैं किसी भवन किसी पत्थर की प्रतिमा में बेजान बनकर रह सकता हूं ।
कभी देखा किसी भी धर्मस्थल पर मुझे चलते फिरते बोलते खाते पीते मगर कितने पकवान कितने आभूषण कितने वस्त्र कितने अन्य सामान कहने को मेरे उपयोग की वस्तु हैं पर उनका इस्तेमाल कोई और करता है । जब दुनिया में करोड़ों लोग भूखे नंगे और परेशान हैं मेरे नाम पर कितना धार्मिकता का दिखावा मेरी मर्ज़ी से नहीं हो सकता है । ऐसा करने वाले मुझे नहीं जानते समझते न ही मेरी भक्ति करते हैं अन्यथा क्या उनको नहीं खबर मैं दीन दुःखियों के दुःख दर्द समझता हूं और सभी से प्यार करता हूं भेदभाव नहीं करता जबकि जो ये सब करते हैं वो समझते हैं कि मैं उनकी संपत्ति की तरह हूं और जिनको वो लोग नहीं चाहते उनको मुझसे दूर रखना चाहते हैं । अर्थात उनको लगता है उन पर मेरा बस नहीं चलता मगर मुझ पर उनका एकाधिकार है । संसार में जितने भी आलीशान धार्मिक स्थल बने हैं जिन को लेकर दावे किये जाते हैं कितना भव्य कितना नवीनतम प्राचीनतम इत्यादि इत्यादि बढ़ाई की जाती है शान बताने को अभिमान जताने को मुझे कभी किसी ने वहां नहीं पाया जीवन भर भटकते रहते इधर उधर । कितनी ऊंची आवाज़ें सभी करते हैं नहीं जानते कि ईश्वर मन की भीतर की अंतरात्मा की आवाज़ सुनते हैं । उन सभी का इतना शोर मुझे सुनाई ही नहीं देता न ही मुझे देखना सुनना ही है । मन से पुकारने पर मैं अवश्य हर किसी के पास आता हूं और मन की आंखों से देखने वालों को दिखाई देता हूं । धरती का शोर मुझ तक कभी नहीं पहुंचता पहुंचती हैं सच्चे मन की प्रार्थनाएं दुवाएं ।
कैसे ज्ञानवान हैं जो किसी बेजान पत्थर में मेरे प्राण प्रवेश करवाने की बात कहते हैं कभी किसी मृत शरीर में फिर से प्राण डाल सकते हैं कभी देखा है । सबसे अचरज की बात होती है इंसान भगवान तक को धोखा दे सकता है मगर खुद अपनी आत्मा अपने विवेक से नहीं बच सकता यहां विवेकहीन लोग दुनिया को क्या सच क्या झूठ क्या सही क्या गलत समझाने की नासमझी कर रहे हैं मैं उनको नहीं जानता जो मुझे नहीं पहचानते हैं । आपको ये निमंत्रण पत्र कहां से मिला है जाने किस किस को बुलावा भेजा गया होगा ये कितनी विचित्र बात है मेरे चाहने वालों की इस की आवश्यकता नहीं होती है । मुझे समरण करते हैं मैं दौड़ा चला आता हूं बुलावा किसे कब भेजना है ये अलग बात है गोपनीय है कोई नहीं जानता । मैं नहीं समझना चाहता ये तमाम लोग क्या करना चाहते हैं अपने बनाने वाले को सोचते हैं उसका कोई महल नहीं रहने को बना कर इक चारदीवारी में बंद करना चाहते हैं । मैं कहां हूं ये बात गलत है सही बात है कि मैं कहां नहीं हूं ।
आख़िर में इक ग़ज़ल ईश्वर को लेकर प्रस्तुत है ।
ढूंढते हैं मुझे मैं जहाँ नहीं हूँ ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया
ढूंढते हैं मुझे , मैं जहां नहीं हूं
जानते हैं सभी , मैं कहां नहीं हूं ।
सर झुकाते सभी लोग जिस जगह हैं
और कोई वहां , मैं वहां नहीं हूं ।
मैं बसा था कभी , आपके ही दिल में
खुद निकाला मुझे , अब वहां नहीं हूं ।
दे रहा मैं सदा , हर घड़ी सभी को
दिल की आवाज़ हूं , मैं दहां नहीं हूं ।
गर नहीं आपको , ऐतबार मुझ पर
तुम नहीं मानते , मैं भी हां नहीं हूं ।
आज़माते मुझे आप लोग हैं क्यों
मैं कभी आपका इम्तिहां नहीं हूं ।
लोग "तनहा" मुझे देख लें कभी भी
बस नज़र चाहिए मैं निहां नहीं हूं ।
( खुदा , ईश्वर , परमात्मा , इक ओंकार , यीसु )
सर झुकाते सभी लोग जिस जगह हैं
और कोई वहां , मैं वहां नहीं हूं ।
मैं बसा था कभी , आपके ही दिल में
खुद निकाला मुझे , अब वहां नहीं हूं ।
दे रहा मैं सदा , हर घड़ी सभी को
दिल की आवाज़ हूं , मैं दहां नहीं हूं ।
गर नहीं आपको , ऐतबार मुझ पर
तुम नहीं मानते , मैं भी हां नहीं हूं ।
आज़माते मुझे आप लोग हैं क्यों
मैं कभी आपका इम्तिहां नहीं हूं ।
लोग "तनहा" मुझे देख लें कभी भी
बस नज़र चाहिए मैं निहां नहीं हूं ।
( खुदा , ईश्वर , परमात्मा , इक ओंकार , यीसु )
.....कैसे ज्ञानवान....पत्थर में प्राण👌👍
जवाब देंहटाएंखुदा , ईश्वर , परमात्मा , इक ओंकार , यीसु - ये पर्यायवाची नहीं हैं
जवाब देंहटाएं