दिसंबर 13, 2023

देश समाज जीवन की क्षणिकाएं ( कविता ) डॉ लोक सेतिया { 12 जनवरी 2005 }

    देश समाज जीवन की क्षणिकाएं ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

                                12 जनवरी 2005 

             1      कड़वी सच्चाई । 

धर्म का कारोबार करने वालों ने   
मंदिर मस्जिद गुरुद्वारा गिरिजाघर को 
अपनी संपत्ति बना कर ईशवर को 
बेघर कर दिया है भिखारी बन कर 
भटकता फिरता शहरों की गलियों में ।  

          2  विडंबना ।

कुछ लोग सत्य की खोज में 
निकले हैं झूठ का सहारा ले 
सच के झंडाबरदार बन कर  ,
वहीं शानदार दफ्तरों सामने
कराहता खड़ा है घायल सच । 
 

   3  चीख पुकार । 

संसद भवन विधानसभाओं में
भीतर भी और बाहर आंगन में 
चीखता पुकारता है लोकतंत्र 
बचाओ बचाओ की कर रहा 
फरियाद गूंगी बहरी जनता से ,
और उसकी अंतिम चंद सांसे 
गिन रहे हैं संग सभी राजनेता । 
 

       4  ज़िंदगी की जंग ।

ज़िंदगी लड़ रही है हारी जंग 
पल पल करीब आती मौत से 
सोचते सभी संभव नहीं बचना 
अनजाने डर से घबराया हर कोई 
उजड़ रहा बसने की चाहत में ही ,
यही आलम है जिधर देखते हम 
महानगर शहर से गांव बस्ती तक । 

      5   बाड़ खेत चर रही । 

 
कोई बन माली उजाड़ता चमन 
बन के मांझी कश्ती डुबोता कोई
कुछ लोग उनकी तस्वीरें बनाकर  
बेचते ऊंचे दाम प्रदर्शनी लगा कर
खुश हैं बदहाली से पैसा कमाकर  ,
इंसानियत शर्मसार है बेबस लाचार
संवेदनहीनता शर्त कैसा कारोबार है ।
 

         6  नाउम्मीद निराश लोग । 

हम जीवन भर बैठे रहते हैं बेकार 
करते रुख हवाओं के बदलने का 
तूफानों के थम जाने का इंतज़ार 
डूबने का भय हौंसलों की है कमी , 
नहीं मंज़िल मिलती उम्र भर कहीं ।
 
काश लड़ते हवाओं तूफ़ानों से और 
गुज़रते भंवर से साहस की पतवार ले 
नहीं घबराते सफ़र की कठिनाइयों से  
किसी बात की चिंता न कोई ही वहम ,
मंज़िल पर जाकर रुकते हमारे कदम । 
 

          7  सपनों में खोये लोग ।

कभी ज़िंदगी से कभी बाक़ी दुनिया से   
शिकवे गिले तमाम करते रहे बेकार हम   
अपनी नाकामियों से सबक सीखते गर 
दिल को झूठे दिलासों से बहलाते नहीं 
अपनी कल्पनाओं को हक़ीक़त बनाते 
झूठी उम्मीदों की आस में बैठते नहीं । 
 

        8    फ़रिश्ता ज़मीं पर । 

 
मसीहा का इंतज़ार किया सदियों तक 
हर किसी में देखी हमेशा वही झलक
नींद से जागते खुलते ही अपनी पलक 
धरती थी वही कहीं दूर था वो फ़लक  
ख्याली बातों पे भरोसा निराशा मिली 
लौटता वापस फिर पुराना ज़माना नहीं 
इस युग में उसका कोई ठिकाना नहीं , 
जिसको जाना समझा पहचाना नहीं । 
 

      9  संघर्ष । 

जीवन इक वास्तविकता है इक जंग है 
कोई सुनहरा ख़्वाब नहीं होती ज़िंदगी 
उसको पूरी तरह पाने के लिए खुद ही 
बदलना होता है सभी हालात प्रयास से 
यथार्थ में जीना होता है अपने पांव रख ,
ठोस धरातल की ज़मीन पर मज़बूती से । 
 

     10   रास्ता मंज़िल का । 

अपनी इस रंग बिरंगी दुनिया में सब है 
फूल ही नहीं हैं कांटे भी हैं पत्थर भी 
छांव धूप रौशनी अंधियारा दोनों हैं यहीं 
किनारे हैं लहरें हैं हिचकोले भी होते हैं 
अपने लोग और बेगाने भी मिलते हैं मगर ,
अपने रास्तों पर चल ढूंढते हैं मंज़िल भी । 
 

       11  वीराने को सजाना है ।

 
सभी तूफानों से गुज़र कर अंधेरे मिटा 
कांटों को हटाना है चलते चले जाना है  
सभी भंवर से गुज़र कर उस पार जाना है 
तब अपने प्यार के ख्वाबों को सजाना है 
खुद ही कोई अपनी नई दुनिया बसाना है 
फूलों को उगाना है शमां को जलाना है ,
प्यार की खुशबू का गुलशन बसाना है । 
 

      12  पत्थर से संगीत की धुन । 


ज़माने के दिल पत्थर के हो गए हैं अब 
उन में फिर कोमल एहसास जगाना है 
ज़िंदगी इक ऐसा इक खूबसूरत तराना है 
प्यार भरे बोलों को होंठों पे सजाना है 
दर्द और ख़ुशी से बनता हर फ़साना है  , 
संग संग मिलकर जिस को गुनगुनाना है ।   





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