दफ़्न आवाज़ रूह की कर गया ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया
दफ़्न आवाज़ रूह की कर गया
रह के ज़िंदा भी शख़्स इक मर गया ।
उस के वादे नहीं कभी सच हुए
डूबे सब लोग बस वही तर गया ।
उसको कोई भी रोक पाया नहीं
वो कुचलता हरेक का घर गया ।
है मसीहा नहीं न वो चारागर
ज़ख़्म गहरे ही कर के ख़ंजर गया ।
आप समझो ज़रा सियासत है क्या
साथ रहजन के मिल वो रहबर गया ।
पूछ मत जुर्म कौन करता यहां
किस का इल्ज़ाम किस के सर पर गया ।
जब भी ' तनहा ' नकाब उठने लगी
हुक्मरानों का दिल बड़ा डर गया ।
( 2001 की डायरी से हास्य कविता से ग़ज़ल बन गई है । )
Waahh 👌👍👍
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