जुलाई 14, 2023

जिसे करना मना वही करना पसंद है ( हादिसा ) डॉ लोक सेतिया

  जिसे करना मना वही करना पसंद है  ( हादिसा ) डॉ लोक सेतिया

                      करणो हुतो सु ना कीओ परिओ लोभ कै फंध ॥
                     नानक समिओ रमि गइओ अब किउ रोवत अंध ॥

जिस तरफ जाना मना है उस तरफ जाना सबको अच्छा लगने लगा है , गुरुनानक जी की बात धर्म की सच्ची राह की है लेकिन यहां हर जगह यही हालत है । तीन दिन पहले इक खबर थी गलत दिशा से तेज़ रफ़्तार से आती बस ने सही दिशा को जाती कार को टक्कर मर कुचला और कई लोग दुर्घटना में मारे गए ।  खबर में बताया गया कि देश की सड़कों पर ऐसा होता है जो रोज़ कितने लोगों की मौत का कारण है । लेकिन हर शहर में तमाम लोग यही आपराधिक गलती करते दिखाई देते हैं क्योंकि आदत ही नहीं रही सही ढंग से रहने चलने और अपनी नहीं बाक़ी सभी की ज़िंदगी की कीमत समझने परवाह करने की । हर चौराहे पर खड़े पुलिस वाले इस तमाशे को देखते हैं रोकते टोकते नहीं समझाते नहीं कि आपको अपनी नहीं औरों की जान जोख़िम में डालने की अनुमति नहीं है । मोटरसाईकल पर कान से फोन लगाए सड़क पर ऐसे चलते हैं लोग जैसे सड़क उनकी ख़ातिर बनाई गई है किसी को उस पर आना जाना है तो बच कर रहना होगा । अधिकांश ऐसे लोग सामन्य व्यक्ति को दहशत में रखते हैं कहीं रुक कर फ़ोन पर बात करने की फुर्सत नहीं क्या ऐसा कार्य है जो किसी की जान से बढ़कर है । 
 
कल इक राजनेता की मौत पुलिस की लाठीचार्ज से घायल होने पर हुई तब मुझे लोकनायक जयप्रकाश नारायण जी का 25 जून 1975 का भाषण याद आया । उन्होंने यही ही तो कहा था पुलिस और सुरक्षाबलों से कि शांति पूर्वक विरोध प्रदर्शन करना संवैधानिक अधिकार है और ऐसा करने पर बलप्रयोग़ लाठीचार्ज या गोली चलाना सही नहीं है और सत्ताधारी शासक के अनुचित आदेश को पालन करने से मना कर सकते हैं । आपको याद दिलाना ज़रूरी है एमरजेंसी इसी बात को बहाना बनाकर लगाई गई थी , अब इस से बढ़कर विडंबना की बात क्या हो सकती है कि आपत्काल को पानी पी पी कर कोसने वाले लोकनायक जयप्रकाश को आदर्श बताने वाले खुद सत्ता मिलते वही दोहराते रहते हैं । कानून पुलिस अदालत सबको अपनी मुट्ठी में कैद किए हुए हैं । एमरजेंसी लगाने की ज़रूरत नहीं बिना लगाए जनता को विरोध प्रदर्शन से रोकने को किसी भी सीमा तक सत्ता का अनुचित उपयोग किया जाता है । 
 
  रोज़ खबरें आती हैं बाढ़ आने पर सरकारी आपदा प्रबंध से लेकर पहले से इनको रोकने को उपाय नियम कायदे लागू नहीं करने की आपराधिक लापरवाही करने के । ऐसे ही सालों तक अवैध निर्माण से आंखें मूंदे किसी अपराधी को पकड़ने अदालत में दोषी साबित करने से बचकर बुलडोज़र से घर ईमारत को गिराने को न्याय कहने लगे हैं । ये न्याय आश्वस्त नहीं करता भयभीत करता है क्योंकि बुलडोज़र किसी सत्ताधारी राजनेता की अवैध ईमारत की तरफ नहीं देखता है । पुलिस जब सुरक्षित महसूस नहीं करवाती बल्कि डरावनी लगती है और सामन्य नागरिक को पुलिस थाना किसी सुनसान हवेली जैसा लगता है जिस से बचना दूर रहना चाहता है हर कोई तब संविधान कानून देश की न्यायप्रणाली सभी का औचित्य नहीं रह जाता है । किसी भी सरकारी दफ़्तर में आम आदमी से अधिकारी कर्मचारी शालीनता से व्यवहार करना नहीं सीखे आज़ादी के 75 साल बाद तक । 
 
पुलिस सरकार अधिकारी ही नहीं शिक्षक डॉक्टर्स समाजसेवक धर्म उपदेशक तक सभी अपने वास्तविक मकसद कर्म से भटके हुए हैं जो करना चाहिए उसे छोड़ वो करते हैं जिसे करना चाहते हैं अपने किसी निजी स्वार्थ की खातिर । गली गली राजनीति से जुड़े लोग आडंबर अधिक करते हैं वास्तव में करना नहीं ज़रूरी समझते हैं । विधायक सांसद मंत्री मुख्यमंत्री तक जो करना उनका कर्तव्य है उसे अनुकंपा करने की बात जताते हुए सोशल मीडिया पर दिखाई देते हैं । कोई राजनेता कोई अधिकारी अपनी जेब से आमदनी से कुछ नहीं देता जो जनता को मिलना चाहिए सरकारी नियम से उस का कुछ भाग देते हुए खुद को दानवीर मसीहा समझना इक धोखा ही है । कर्तव्य निभाने को एहसान समझना कितना गलत है जब सोचते हैं तो जिसे देखते हैं उसी गलत दिशा को जाता है जाने को व्याकुल है । ख़ास जाने माने लोग इश्तिहार देते हैं अपनी महिमा अपना गुणगान करने वाले कभी कोई नहीं बताता उनकी कमाई कितनी खरी है कितनी खोटी है । इक अजीब पागलपन छाया हुआ है सभी खुद को ख़ास बड़ा महान कहलाना चाहते हैं जबकि ऐसा चाहना अपने आप में इक जुर्म है ऐसा कहा जाता है ।  शोहरत की कामना करना इक अपराध है आपको अपना कर्तव्य निभाना चाहिए बिना किसी स्वार्थ के तब शोहरत अपने आप मिलती है कोई चाहे या नहीं चाहे तब भी । ये जाने कैसा समाज है आधुनिक कहलाने वाला जहां मौसम से डरने लगे हैं बारिश को जाने क्या समझने लगे हैं और प्यार के नाम पर आशिक़ किसी का क़त्ल करने लगे हैं ये कोई सच्चा इश्क़ नहीं है कुछ और है फ़िल्म टीवी सीरियल वालों ने दुश्मनी दोस्ती का अंतर भुला दिया है नफरत भरे दिमाग़ को आशिक़ी का नाम दे कर बड़ा गुनाह किया है । आदमी आदमी से डरने लगा है और जानवर से प्यार की बात करने लगा है खुद इंसान के भीतर का इंसान मरने लगा है । खूबसूरत दुनिया को बर्बाद कर रहे हैं खुद तबाही को बुलाया है और बचने की फरियाद कर रहे हैं । आखिर में मेरी इक पुरानी ग़ज़ल , हर मोड़ पर लिखा था आगे नहीं है जाना , लेकिन सबको मर्यादा की लक्ष्मणरेखा को लांघने की ज़िद है कोई समझा नहीं कोई माना नहीं । 

                        ग़ज़ल डॉ लोक सेतिया ' तनहा '

हर मोड़ पर लिखा था आगे नहीं है जाना
कोई कभी हिदायत ये आज तक न माना ।

मझधार से बचाकर अब ले चलो किनारे
पतवार छूटती है तुम नाखुदा बचाना ।

कब मांगते हैं चांदी कब मांगते हैं सोना
रहने को झोंपड़ी हो दो वक़्त का हो खाना ।

अब वो ग़ज़ल सुनाओ जो दर्द सब भुला दे
खुशियाँ कहाँ मिलेंगी ये राज़ अब बताना ।

ये ज़िन्दगी से पूछा हम जा कहाँ रहे हैं
किस दिन कहीं बनेगा अपना भी आशियाना ।

मुश्किल कभी लगें जब ये ज़िन्दगी की राहें
मंज़िल को याद रखना मत राह भूल जाना ।

हर कारवां से कोई ये कह रहा है "तनहा"
पीछे जो रह गए हैं उनको था साथ लाना ।
 



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