जुलाई 08, 2023

मेरी पुरानी डायरियों से ( कुछ यादें कुछ एहसास ) डॉ लोक सेतिया [ भाग - दो ]

     मेरी पुरानी डायरियों से ( कुछ यादें कुछ एहसास ) डॉ लोक सेतिया 

                                              [ भाग - दो ]

अधिकांश लिखने वाले अपनी शुरूआती अधकचरी रचनाओं को संभाल कर नहीं रखते बल्कि छुपाए रहते हैं और कभी उनका नामो निशान मिटा देते हैं । कहा जाता है कि उनको पढ़कर किसी को महसूस हो सकता है कि कैसी कैसी अधकचरी रचनाएं लिखते थे । मैं कच्ची मिट्टी की तरह था ज़माने की आग ने मुझे पकाया तब जाकर कुछ पढ़ने के लिए लिखना आया मुझे 45 सालों में लेकिन उस गीली मिट्टी की सौंधी सौंधी खुशबू मुझे अभी भी आती हुई लगती है तभी अपनी पुरानी डायरियों को विरासत की तरह संभाले रखा है ।   
 
     
15 दिसंबर 1976 

ख़्वाबों में ख्यालों में जिए हैं हम 
आरज़ू करते करते मुरझाए फूल 
दिन ख़िज़ाओं के न हो सके कम । 

हर किसी पर ऐतबार किया है 
हम सबके सभी हैं अपने ही तो 
सोचते हैं कौन था कोई भी नहीं 
हमने क्योंकर इंतज़ार किया है । 

सब को चांदनी नहीं कभी भी मिलती 
नादानी वो चांद को छूने की कोशिश 
यूं ही हमने कई बार किया नासमझी 
ज़िंदगी ठहरी नहीं कहीं रही चलती ।  

16 नवंबर 1979 

नज़र आता है हर तरफ अंधेरा 
मेरी नज़रों का नज़ारों से नहीं 
नाता ।

मेरे अधरों का मुस्कानों से जैसे 
टूट गया कोई भूला बिसरा था 
नाता । 

27 मार्च 1984 

जाने क्या हो 
अंजाम ज़िंदगी का अपनी 
जिएं कैसे मरें भी किस तरह 
कुछ भी तो समझ नहीं आता । 

कश्ती तूफानों से उलझती है 
है किनारा किधर खबर नहीं 
भंवर भी कहीं नज़र नहीं आता । 

17 मार्च 1985 

तन्हाईयों में जीना ज़िंदगी तो नहीं 
दुनिया की भीड़ में अकेले हम हैं 
उजालों की रौनक है ज़माने भर की 
अपनी खातिर कोई रौशनी नहीं । 

फुर्सत में कभी कभी ख़्याल आता है 
पल दो पल कोई होता साथ साथ 
बुझती ज़रा हमारी प्यार की प्यास 
बस तमन्ना है ये , कोई बंदगी नहीं । 

22 जून 1985 

ग़म रोज़ मिलते रहे नए नए 
वर्ना तूफ़ान गुज़र ही जाते 
ज़ख्म हर किसी से मिले हमें 
वर्ना नासूर भर भी जाते 

जिनकी वफाओं पे नाज़ था 
काश इतना तो करही जाते 
दोस्ती नहीं निभा सकते मगर 
दुश्मनी की हद से नहीं बढ़ जाते 

तंग आए कश म कश से जब भी 
गीत कुछ लब पर चले आये मेरे 
उन्हीं गीतों के सहारे है ज़िंदा अभी
' लोक 'वर्ना  कब के मर ही जाते ।  

23 जून 1985 

बहुत गिला था तुम्हारी बेवफ़ाई का 
हम ने समझे नहीं थे दुनिया के चलन 
 
ज़माने में बनाते हैं ज़रूरतों की खातिर 
नये नये रिश्ते लोग हमेशा कितने ही 
 
छोड़ दिए जाते हैं सहूलियतों के लिए 
अब जाना वफ़ा कुछ नहीं सिवा इसके 

इक शब्द किताब पर लिखा हुआ सिर्फ 
बेबात था शिकवा गिला तुमसे जाता रहा ।  

17 अक्टूबर 1985 

कभी कभी ( कविता ) 

होता है एहसास कभी कभी 
कि अभी तलक ज़िंदा हैं हम 

यूं भी लगता है कभी कभी 
लौट कर आ गए वही दिन 

मन कहता है ये कभी कभी
आने वाले तो मिलने तुम 
 
मैं भूल जाता हूं कभी कभी 
कि बिछुड़ गए कभी के हम । 




 

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