बेख़बर हैं कुछ ख़बर ही नहीं ( ख़ामोश दास्तां ) डॉ लोक सेतिया
आज सुबह की ही बात है पार्क में सैर करते करते किसी को कहते सुना देश अमुक अमुक के शासन के बाद तरक़्क़ी करने लगा है नहीं तो उनसे पहले इतने सालों में कुछ भी नहीं किया गया था । उन्होंने जो संख्या बोली थी उसको नहीं शामिल किया क्योंकि खुद बोलने वाले को समझ नहीं थी कि कुछ साल उनकी घोषित गिनती के उन्हीं के शासन का भी कार्यकाल है जिनको वे अच्छे नहीं बल्कि इक वही अच्छे बाक़ी सब बेकार बताने की कोशिश कर रहे थे । बेशक उनकी उम्र अभी अधिक नहीं शायद चालीस के करीब होगी अर्थात उनको देश समाज की समझ साधारण तौर से अनुमान लगाएं तो पिछले बीस साल से खुद अपने अनुभव से हासिल हुई होगी उस से पहले की जानकारी उन लोगों से मिली होगी जिन से उनका मेल जोल और नाता रहा होगा । उनके जन्म लेने से पहले तीस या पैंतीस साल में देश आज़ादी के बाद किस तरह था और किस किस ढंग से कितनी मुश्किलों और कोशिशों से भविष्य की बुनियाद की कल्पना की गई और उसे साकार करने को देश की जनता सामान्य नागरिक से लेकर मज़दूर किसान शिक्षक वैज्ञानिक और कारीगर से सर पर बोझ उठाने वाले अनपढ़ लोगों डॉक्टर्स सभी स्वास्थ्य सेवा करने वाले वैद हकीम जैसे अनगिनत काम करने वालों की लगन और महनत का नतीजा है जिस देश में सुई तक नहीं बनती थी सब करना संभव हुआ तो कैसे । ये सब हुआ क्योंकि जो भी शासक लोकतांत्रिक व्यवस्था से निर्वाचित हुए उन्होंने अपना कर्तव्य यथासंभव निभाया और जो करने को उनको नियुक्त किया गया था उस पर सही साबित होने का भरसक प्रयास किया । गलतियां होती हैं और शासक हो या कोई भी प्रशासक सभी से होती हैं मगर उनको स्वीकार करना उनको ठीक करना एवं भविष्य में नहीं दोहराना ये ज़रूरी होता है समाज को बेहतर बनाने को । यहां इस बात का उल्लेख इस कारण किया जाना अतिआवश्यक है क्योंकि देश की आज़ादी से 1947 से 1975 तक सत्ता पक्ष की आलोचना उनकी नीतियों का विरोध करना कोई मुश्किल कार्य नहीं था बल्कि अधिकांश समय तक विपक्ष के विरोध की बात को आदर देना और महत्वपूर्ण समझना इक लोकतांत्रिक परंपरा थी । देश का प्रधानमंत्री संसद में खुद वरोधी दल की बात को सुनते थे और इतना ही नहीं जब कभी किसी जनसभा में भाषण देते तब उपस्थित जनता से अनुरोध किया करते थे कि भले हमारे विचार अलग अलग हैं लेकिन उनकी सभा में उनकी बात भी अवश्य जाकर सुनिए वो बड़े लाजवाब व्यक्ति हैं । आज शायद बहुत लोगों को इस पर विश्बास ही नहीं होगा लेकिन लोकनायक जयप्रकाश नारायण राम मनोहर लोहिया और अटल बिहारी बाजपेयी जी जैसे कितने नेताओं को लेकर ऐसा सदन में और चुनावी सभाओं में कहा जाता रहा है । आपको इस बारे में 11 साल पुरानी पोस्ट मिल जाएंगी जो आपको ये भी समझने को विवश करेंगी कि लेखक किसी का प्रशंसक या समर्थक नहीं है न ही किसी का विरोधी है समाज की बात कहता है और जब जिस समय जैसा सामाजिक माहौल रहा उस पर निष्पक्षता से मत प्रकट करता रहा है । अब असली बात कब क्या हुआ और कब क्या नहीं हुआ होना चाहिए था बड़े संक्षेप में ।
1951 का जन्म है मेरा आज़ादी के करीब चार साल बाद का 1973 तक स्कूल कॉलेज की पढ़ाई ख़त्म कर आयुर्वेदिक डॉक्टर बनकर दिल्ली में अपनी प्रैक्टिस शुरू की थी । बीस साल का युवक देश की राजधानी में रहते देश की समाज की बातों को समझने लगा और तमाम कारणों से कुछ बदलने की कोशिश करने की चाहत मन मस्तिष्क में आने लगी और पैसा नाम शोहरत की दौड़ को इक तरफ छोड़ अपनी अलग राह चल पड़ा । लेखक होना है ये सोचा ही नहीं जानता ही नहीं था बस विचार अभिव्यक्त करता कलम उठाता और कभी कोई पत्र किसी सामाजिक विडंबना पर किसी जनसमस्या पर लिख संबंधित विभाग को भेजता और कभी अपना काम छोड़ सामाजिक उद्देश्य से सरकारी दफ़्तर जाकर चर्चा करता शिकायत करता और तब तक लगा रहता जब तक कुछ ठीक नहीं हो जाता । ये कहना ज़रूरी था कि पढ़ लिख कर विवेकशील बन कर परिपक्व होने पर तर्कसंगत ढंग से आप सही और गलत की परख कर सकते हैं । सुबह सैर पर जिस ने कहा था पहले कुछ भी नहीं था , सुनते ही मैंने जवाब दिया था अच्छा मज़ाक है । पलटकर उस ने पूछा क्या मतलब , मैंने कहा बढ़िया है । मुझे नहीं पता वो कौन है कभी उनसे कोई परिचय हुआ हो ध्यान नहीं इसलिए अधिक कहना उचित नहीं था लेकिन घर आकर सोचना ज़रूरी लगा कि क्या वास्तव में इतने साल कोई उन्नति नहीं हुई और मैं डॉक्टर कोई इंजीनीयर कोई वैज्ञानिक कोई अर्थशास्त्री कोई वकील कोई सरकारी अफ़्सर कोई कितने बड़े उद्योग का मालिक बन सका । हम सभी की पढ़ाई लिखाई और कुछ बनने में देश और समाज का कितना बड़ा योगदान है शायद इस बेहद महत्वपूर्ण सवाल पर हमने विचार ही नहीं किया । मुझे याद है सरिता पत्रिका के संपादक विश्वनाथ पाक्षिक पत्रिका के हर अंक में यही सवाल उठाते थे , क्या आपको देश समाज ने जितना दिया आप उसे उतना तो क्या कुछ भी निःस्वार्थ लौटाना चाहते हैं । ये मेरा लेखन उसी दिशा में उठाया इक कदम है अपने देश समाज को संभव हो तो कुछ क़र्ज़ चुकाना कुछ कोशिश करना उसको बेहतर बनाने की ।
इक गांव में रहते थे जहां पहली बार इक स्कूल खुला था पांचवी कक्षा तक की पढ़ाई और एक अध्यापक जिन्होंने अपना शहर छोड़ परिवार सहित गांव में सरकारी स्कूल के अध्यापक की नौकरी स्वीकार की जबकि ऐसा करना उनकी आर्थिक सामाजिक विवशता नहीं थी । मास्टर गुलाबराय जी अगर बहुत कठोर परिश्रम नहीं करते तो मुमकिन था हम जो डॉक्टर बैंक अधिकारी से न्यायधीश तक बन गए उस गांव में पढ़कर कभी नहीं संभव होता क्योंकि शायद ही शिक्षा का महत्व हमारे माता पिता समझते थे । जिस देश में शिक्षा का साधन नहीं कोई स्वास्थ्य सेवा नहीं पीने को पानी नहीं कोई सड़क नहीं बिजली नहीं कोई यातायात की सुविधा नहीं थी आज़ादी के बाद उन ऐसे लाखों गांवों का भारत देश अगर तमाम साधन सुविधाओं से और खेती की आधुनिक शैली साधन सुविधाओं से परिपूर्ण है अधिकांश तो क्या ये कोई आसान कार्य रहा होगा ये निर्माण करने का इक गरीब देश के लिए । हम देश की राजनीति के पतन की मूल्यविहीन और भ्र्ष्ट होने की चर्चा करते हैं लेकिन खुद अपने दायित्व की देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था को सही बनाए रखने को अपने वांछित योगदान की बात पर विचार विमर्श नहीं करते । स्वीकार करना होगा कि हम जिसे सुधार सकते थे उसे बद से बद्त्तर बनाने में मूकदर्शक या सहभागी रहे हैं । और अभी भी हम देशसेवा और देशभक्ति और अपने शासकीय धर्म का पालन नहीं करने वाले सत्तालोभी राजनेताओं को महान घोषित कर झूठ को सिंहासन पर बिठाना चाहते हैं देश समाज से अधिक किसी दल या व्यक्ति को समझना देश की आज़ादी और संविधान की अवहेलना करना है । कोई बुद्धिहीन ही कह सकता है कि देश में कितने बड़े बड़े अस्पताल विश्वविद्यालय आई आई टी संसथान से बांध सड़कों और नहरों का जाल देश के हर राज्य के कोने कोने तक स्कूल कॉलेज कोई गणना नहीं परमाणु बंब से आधुनिक अस्त्र शस्त्र तक और तकनीकी तौर पर विश्व में सब देशों के बराबर प्रगति करने का काम हुआ ही नहीं ।
लेकिन सब अच्छा हुआ बढ़िया हुआ ऐसा नहीं कहा जा सकता है , गांधीवादी विचारधारा को छोड़ गांव के भारत को अनदेखा कर शहरीकरण को अपनाना सही नहीं था आसान लगा लेकिन कोई नहीं जानता उस की कितनी बड़ी कीमत हमने चुकाई है पर्यावरण से लेकर नदियों तक को प्रदूषित कर समाज को इक ऐसी दलदल में पहुंचा दिया है कि अब चाहें भी तो फिर से सब सही नहीं किया जा सकता है । राजनेताओं और सभी राजनैतिक दलों ने देश और संविधान के साथ जघन्य अपराध किया है देश की आधी आबादी की गरीबी भूख और धनवान लोगों उद्योगपतियों द्वारा उनके शोषण को बढ़ावा देने का कार्य करना अपराधी और धनवान लोगों की कठपुतलियां बनकर रह जाना । बुद्धिजीवी अख़बार टीवी चैनल से सिनेमा जगत और कलाकार तक समाज को आईना दिखाने उनको वास्तविकता से परिचित करवाने की जगह अपने स्वार्थों में लिप्त होकर इक और ही दिशा में दौड़ते भागते नज़र आते हैं । मार्गदर्शन करना छोड़ भटकाने का कार्य कर समाज को इक ऐसी गहरी खाई में ला खड़ा किया है जहां उनको खुद अपनी शक़्ल की पहचान नहीं होती है उनकी वास्तविकता छुपी हुई है और जो सामने दिखाई देता है वो झूठा कल्पनिक ऐसा किरदार है जीना उनके असली जीवन से कोई तअलुक्क ही नहीं है । समाजवाद की राह से भटक कर हमने पूंजीवादी व्यवस्था का पल्लू थाम लिया और इक कागज़ की नाव पर महासागर लांघने का ख़्वाब बुनने लगे हैं । सबको जगमगाती रौशनियां आकर्षित करती हैं लेकिन चकाचौंध रौशनी के पीछे कितना अंधेरा है कोई नहीं जानता जैसे मृगतृष्णा के शिकार हो गए हैं तमाम लोग चमकती रेत को पानी समझ दौड़ रहे हैं प्यास नहीं बुझेगी प्यासे मरने तक ये सिलसिला चलेगा ।
शानदार लेख सर...निःसन्देह हर सरकार में तरक्की होती रही है। हर नागरिक अपनी योग्यता के हिसाब से देश के विकास में योगदान देता रहा है। जो ये सोचते हैं हाल फिलहाल में ही सब तरक्की हो रही है, वे कूप मण्डूक हैं
जवाब देंहटाएंशानदार लेख सर...निःसन्देह हर सरकार में तरक्की होती रही है। हर नागरिक अपनी योग्यता के हिसाब से देश के विकास में योगदान देता रहा है। जो ये सोचते हैं हाल फिलहाल में ही सब तरक्की हो रही है, वे कूप मण्डूक हैं
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