समरथ को नहीं दोष गौसाईं ( चिंतन ) डॉ लोक सेतिया
श्री रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदास लिखते हैं , समरथ को नहीं दोष गौसाईं । अर्थात साधन सम्पन्न बलशाली प्रभावशाली का आचरण सुनिश्चित सामाजिक मर्यादाओं के विपरीत होने पर भी उसे नियम विरुद्ध आचरण का दोषी नहीं माना जाता है । यह
ठीक उसी प्रकार है जैसे सूर्य की तीव्रता कितनी भी प्रचंड हो, वर्षा काल
में गंगाजी अपने तटों को छोड़कर कितने भी क्षेत्र पर अतिक्रमण कर लें और
अग्नि अपनी प्रचंड ज्वाला में कुछ भी भस्म कर दे किन्तु उसे दोषी नहीं
ठहराया जाता है ।
ये जो शब्द ऊपर लिखे हैं किसी धार्मिक व्यक्ति के व्याख्यान से बिना किसी फेर बदल लिए गए हैं । सदियां बीत गई और हम पढ़ लिख कर आधुनिक समाज का निर्माण करने के बावजूद भी उस पुरानी मानसिकता को छोड़ नहीं पाए हैं । कृष्ण बिहारी नूर कहते हैं धन के हाथों बिके हैं सब कानून , अब किसी जुर्म की सज़ा ही नहीं । सब बिकता है और धनवान खरीद लेते हैं नीचे से ऊपर तक कर्मचारी अधिकारी से राजनेता तक यहां तक की इंसाफ़ भी धनवान और उच्च वर्ग को मनचाहा और जल्दी से उपलब्ध हो जाता है जबकि सामान्य व्यक्ति ज़िंदगी भर कोर्ट कचहरी सरकारी दफ़्तरों के चक्कर काटता मर जाता है ।
राजनेता चाहे जिस भी दल के हों आज तक कोई कानून खुद पर अंकुश लगाने को नहीं बना पाए हैं । लाख डांट फटकार सर्वोच्च अदालत से मिलने पर भी संसद और विधानसभाओं में अपराधी बाहुबली गंभीर जुर्म करने वाले भी माननीय कहलाये जाने पर रोक नहीं लगाई है । अफसरशाही सब पर सख़्ती से नियम लागू करती है अपने को नियम कायदे कानून से ऊपर समझती है उनकी कलम जब जैसी ज़रूरत अपनी सुविधा साहूलियत से बदल कर कानून को नर्म मुलायम लचीला बना लिया करती है ।
यूं तो देश की व्यवस्था इतनी लचर और बदहाल हो जाने पर भी किसी शासक प्रशासक को रत्ती भर भी चिंता नहीं है फिर भी कभी कभी कोई शासक या प्रशासक या मंत्री विचार करता है और कुछ कानूनी बदलाव लाने की कोशिश करता है जिस से सबको शिक्षा स्वास्थ्य सेवा रोज़गार समानता से हासिल हो सके । तब कुछ लोग जिनके स्वार्थ जिनकी मनमानी पर अंकुश लगता है वे तमाम तरह से साम दाम दंड भेद का उपयोग कर अपने हित को साधने का कार्य कर लिया करते हैं । परहित सरिस धरम नहीं भाई , परपीड़ा सम नहीं अधमाई। ये भी पंक्ति श्री रामचरितमानस से उद्धित है । ये कितनी विडंबना की बात है कि हम दावा करते हैं मानवता और समाज देश के कल्याण का लेकिन अपने पास बहुत होने पर भी उनके लिए जिनके पास जीवन यापन को कुछ भी नहीं थोड़ा सा त्याग अपने स्वार्थ का नहीं स्वीकार करते सबकी भलाई की खातिर । आज़ादी को कुछ ख़ास लोगों ने बंधक बना लिया है और आम लोगों की आज़ादी तो क्या उनके मौलिक जीने के हक तक हासिल होने नहीं देना चाहते हैं । अजीब बात हुई शुरुआत बड़े लोगों की अनुचित बातों को भी गलत नहीं समझते से की तो आखिर अंत में परहित सरिस धरम नहीं भाई पर पीड़ा पर होने से विषय पूरा समझ में आया , अभी तक ऊपर शीर्षक की जगह खाली थी अब शीर्षक सही मिल गया है । समरथ को दोष नहीं दे सकते लेकिन साथ में आखिर में कहना ज़रूरी है समरथ लोग पर पीड़ा को नहीं समझते तो सबसे बड़ा अधर्म यही है । समरथ को नहीं दोष से लेकर पीड़ा देने से अधिक अधर्म कोई नहीं तक यही कथासार है ।
बहुत सार्थक और सटीक लेख....नियम कानून बनाने वाले अपने लिए अंकुश नही चाहते। नियम कानून दुसरो पर राज करने को बनाए जाते हैं
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