अगस्त 23, 2022

ज़िंदगी भर ख़ुशी ढूंढते हैं लोग ( कविता ) डॉ लोक सेतिया

       ज़िंदगी भर ख़ुशी ढूंढते हैं लोग ( कविता ) डॉ लोक सेतिया 

मिलती नहीं जीवन भर क्यों 
मिलती है ख़्वाबों में शायद वो 
और हम ने ख़्वाब सजाना ही 
हक़ीक़त से घबरा छोड़ दिया । 

वही मांगते हैं खुशियां उन्हीं से 
देते हैं जिनको दर्द की सौगातें 
इंसान इंसान हैं कोई पेड़ नहीं 
पत्थर खा देते हैं फल सबको ।
 
बना दिया है कारोबार उसे और 
कीमत लगाते हैं सब ख़ुशी की 
दर्द के बदले कौन बांटता है अब 
अपनों बेगानों को वास्तविक ख़ुशी । 
 
इक बार इक ख़ुशी मिली हमको 
करीब जा कर देखा उसकी आंखें 
अश्क़ों से भरी हुई थी दर्द सहते 
मुस्कराहट मगर लबों पे रहती थी ।
 
वो नन्हीं सी बिटिया चाहती थी 
उठा कर कोई चूमे माथा उसका 
फुर्सत थी किसे खेले संग कौन 
खिलौनों से बहलाना था आता । 
 
देख कर ग़म सभी भूल भूल जाएं 
मासूम ख़ुशी बड़ी हो गई धीरे धीरे 
घबराती अब सबसे करीब आने से
खुश होने लगे सभी उसे रुलाने से । 
 

 

 
 
 

4 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (24-08-2022) को "उमड़-घुमड़ कर बादल छाये" (चर्चा अंक 4531) पर भी होगी।
    --
    कृपया कुछ लिंकों का अवलोकन करें और सकारात्मक टिप्पणी भी दें।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    --
    डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. कृपया कुछ लिंकों का अवलोकन करें और सकारात्मक टिप्पणी भी दें। -- चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है। जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये। -- डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
    जी आपका आग्रह उचित है मगर मेरी अपनी आदत जीवन की व्यस्ताएं हैं और समस्याएं समय का अभाव जैसे कारण जो मैं सभी की अपेक्षाओं उम्मीदों पर खरा साबित नहीं हो सका वास्तव में। ये कोई सफाई नहीं बहाना नहीं आपकी बात को समझ जवाब देना ज़रूरी समझा है। डॉ लोक सेतिया।

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