मई 02, 2022

ख़ुद से मुलाकात नहीं होती ( सुकून की तलाश ) डॉ लोक सेतिया

   ख़ुद से मुलाकात नहीं होती ( सुकून की तलाश ) डॉ लोक सेतिया 

  होती है ज़माने से मगर अपने से बात नहीं होती है , इन उजालों में वो बात नहीं होती है शहर में कभी चांदनी रात नहीं होती है। सुबह कब हुई कब हुई शाम खबर नहीं , बादल होते हैं बरसात नहीं होती है दोपहर की धूप से बचना मुश्किल है कोई भी दिलकश सुहानी रात नहीं होती है। भीड़ में हर कोई खुश भी है परेशान भी बैचैन दिल को चैन मिलने की राह नहीं मिलती कश्ती किनारों से बच के निकलती है साहिल से मुसाफ़िर का नाता नहीं कोई फूल की खुशबू से पहचान नहीं है बाग़ों की तितलियों से बात नहीं होती है। 

सोचना याद करना यादों की मधुर बातों को कभी फुर्सत ही नहीं है उन झरोखों से झांककर देखने की। क्या दिन से महफ़िल से उकताहट होती थी तो कभी छत पर कभी खेत खलियान में अकेले पेड़ों की छांव में जा कर चैन मिलता था खुद अपने आप से बात करते थे। गाते गुनगुनाते कभी तन्हाई में अश्क़ बहाते चैन पाते थे अपने दुःख दर्द भरे मौसम छोड़ बहार लाते थे। दोस्तों की महफ़िल में नाचते झूमते गाते थे दिल को इस तरह बहलाते थे अश्कों के मोती बेकार नहीं बहाते थे। शाम ढले सुनसान राहों पर चलते चले जाते थे किसी नहर किनारे लहरों से बतियाते थे। ये कोई पागलपन नहीं था ये खुद को समझने चिंतन मनन करने का ढंग होता था। पढ़ना लिखना याद करना हो तो बाग़ में जाकर बैठते पेड़ से लगकर घंटों गुज़र जाते थे घर हॉस्टल में पढ़ना लिखना मुश्किल लगता था जब कमरे में लोग आते जाते आवाज़ लगाते थे बस करो कितना पढ़ोगे दोस्त मुश्किल बढ़ाते थे। 
 
  अब आजकल हर कोई अकेला है फिर भी दुनिया भर की बेमतलब की बातें बेचैन किए रखती हैं। सोशल मीडिया टीवी फेसबुक व्हाट्सएप्प जाने कितने झंझट जकड़े हुए हैं। आदत लत बनी नशा बन गई है दुनिया भर की खबर है लेकिन कितनी झूठी कितनी सच्ची नहीं समझते और खुद अपने आप से अजनबी हैं। खुद को जानते पहचानते नहीं खुद अपने से मिलते नहीं सोचते नहीं क्या हूं मुझे किधर जाना क्या करना है बस दौड़ रहे हैं भागते भागते थक गए मगर मंज़िल का कोई पता नहीं शायद मंज़िल से दूर होते जाते हैं उलटी दिशा को चलकर। ऋषि मुनि तपस्वी पहाड़ों पर जाते थे जीवन का अर्थ जीने का मकसद ढूंढने को , हम गांव शहर महानगर से पर्वत की सैर करने जाते हैं मौज मस्ती आनंद के कुछ पल व्यतीत करने को। और कुछ दिन बाद वापस उसी कोलाहल में आनंद का एहसास भूलकर बेचैनी को गले लगाते हैं। आदमी की बनाई इस दुनिया ने उसको वास्तविक कुदरती दुनिया से इतना दूर कर दिया है कि अब उस वास्तविक सुकून चैन आनंद की अनुभूति संभव नहीं रही है। मनोवैज्ञानिक शोध कर चौंकाने वाले तथ्य सामने ला रहे हैं असुरक्षा अनावश्यक भय आशंकाओं ने मन मस्तिष्क को घेर लिया है। हर कोई हर किसी को अविश्वास और शंका की निगाह से देखता है। सही बात का कोई और मतलब ढूंढते रहते हैं हमने खुद को इक जेल में कैद कर लिया है और फेसबुक व्हाट्सएप्प की अंधी गली को रौशनी समझने लगे हैं। कहने को कितने शानदार संदेश मिलते हैं भेजते हैं लेकिन आचरण में उनका कोई प्रभाव नहीं होता है। गंधारी की तरह सब लोग अपनी आंखों पर पट्टी बांधी हुए हैं स्वार्थ खुदगर्ज़ी की , लेकिन संजय धृतराष्ट्र को गीता का संदेश सुना रहे हैं जबकि उनका ध्यान मोह माया जीत हार और महाभारत की घटनाओं का आंकलन अपनी सुविधा से करने में लगा है। आधुनिक काल में महाभारत का स्वरूप बदला है गीता का अर्थ बदला है गीता का उपयोग जाने किस किस उद्देश्य से किया जाने लगा है। बगैर समझे ताली बजाना सर हिलाना आदत बन गया है। सोशल मीडिया ने दुनिया को इस ढंग से पेश किया है कि पांव आसमान पर सर धरती पर है मगर उड़ान कहते हैं रसातल की ओर जाने को। जिनको खुद अपनी पहचान नहीं है सबको उनकी तस्वीर दिखलाते हैं । बिकने वाले लोग खरीदार कहलाते हैं। तलवे चाटते हैं दुम हिलाते हैं। अंधे दुनिया को नई राह बताते हैं।
 

 
 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें