दिसंबर 15, 2021

ग़ुलामी को बरकत समझने लगे ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

   ग़ुलामी को बरकत समझने लगे ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

शहंशाह के चाहने वाले ग़मज़दा हैं उदास हैं बड़े बेचैन हैं। कहते हैं सरकार इतनी कठोर तपस्या किसलिए। पहले जितने शासक हुए हैं सभी ने मौज मस्ती सैर सपाटे शाही अंदाज़ से सजना संवरना रोज़ मनचाहा खाना जश्न मनाना जैसे ऐशो आराम पर खज़ाना लुटाया है। सरकार आपने बस इक धोती कुर्ते एक समय पेट भरना एक समय उपवास रखना गांधी लालबहादुर की राह चल सादगी से रहकर देशसेवा की मिसाल कायम की है। अपने अपनी शान दिखाने को कोई महल नहीं बनाया है गरीबी से नाता छोड़ा नहीं हमेशा इक झौंपड़ी में घर बसाकर गुज़ारा किया है। अफ़सोस चाहने वालों को इस बात का है कि जिन की खातिर जनाब कांटों का ताज पहन शूलों भरे सिंघासन पर विराजमान हैं वही देशवासी आपको बुरा भला कहते हैं। उनको नहीं पता आपको सत्ता की रत्ती भर चाहत नहीं है आप तो भिखारी बनकर जीवन बिताते रहे हैं बस बीस साल से कुर्सी से रिश्ता इस तरह निभाया है जैसे कोई आशिक़ अपनी महबूबा से दिल से प्यार करता है तो किसी और की कभी नहीं होने देता। ग़ुलाम लोग चाटुकारिता से बहुत आगे बढ़कर शहंशाह को अपना आराध्य और खुद को उपासक मानते हैं। उनके दिलो-दिमाग़ में चिंता और डर महसूस होने लगा है कहीं देश की नासमझ जनता उनको चुनाव में पराजित करने का गुनाह नहीं कर बैठे। ठीक है इस से पहले बड़े बड़े अहंकारी तानाशाहों को देशवासियों ने उनकी सही जगह पहुंचाया है धूल चटाई है। लेकिन गुलामों को डर है उनका भगवान सत्ता से बाहर हुआ तो क्या होगा वो घड़ी क़यामत की घड़ी होगी। 
 
गुलामों की हालत ऐसी है कि उनको लगता है देश को आज़ादी पहले नहीं मिली थी अब जब से इस शासक को सत्ता हासिल हुई तब मिली है आज़ादी। देश की आज़ादी की लड़ाई लड़ने वाले सभी जान की कुर्बानियां जाने क्यों देते रहे। उस इतिहास को मिटाना चाहते हैं जिस में ऐसे कई नाम आते हैं जिन्होंने आज़ादी की जंग में विदेशी शासकों का साथ दिया आज़ादी की ख़ातिर लड़ने वाले शहीदों की मुखबरी और जासूसी करते रहे लेकिन इस शासन के लोगों को आदर्श लगते हैं। माजरा कुछ और है शहंशाह के दरबार में सजाएं इस कदर खूबसूरत मिलने लगी हैं कि हर कोई गुनहगार होने को बेताब है। सब अपने गुनाहों का इकरार करने लगे हैं ग़ुलामी को बरकत समझने लगे हैं। 
 

 

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