साहित्य में आरक्षण ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया
ये कभी सोचा ही नहीं था आज इक साहित्य की पत्रिका को लेकर रचना भेजने की बात हुई तो सुनकर हैरानी हुई कि अगले काफी अंक निर्धारित किये जा चुके हैं कैसे रचनाकार शामिल करने हैं। खुद उन्हीं के शब्दों में अगला विशेषांक बड़े बड़े सरकारी अधिकारियों की रचनाओं को लेकर होगा। साहित्य की इस दशा पर गर्व कर सकते हैं या खेद जता सकते हैं ये वही जाने जो साहित्य में भेदभाव से आगे बढ़कर ख़ास वर्ग को आरक्षण देने की बात सोच भी सकते हैं। शायद जिनकी रचनाएं छपनी हैं उनको भी ये समझ आया होगा ये अनुकंपा किसी विशेष उद्देश्य से हासिल होगी। चलो कल्पना करते हैं कोई उच्च पद पर बैठा सत्ता के नशे में मस्त अपना नाम साहित्यकारों में शामिल करवाना चाहता है तो कोई कठिनाई नहीं होगी। मुझे कोई अठाहर वर्ष पुरानी घटना याद आती है , शाम का समय था मेरे घर के करीब ही इक अखबार के पत्रकार के दफ़्तर में बैठे बातें करते करते उनके कूड़ेदान पर नज़र गई देखा सफेद कागज़ पर टाइप की कुछ कविता जैसी झलक दिखलाती हुई रचनाएं फेंकी गई थी। उनसे अनुमति लेकर कूड़ेदान से उठाकर पढ़ना चाहा क्योंकि उन्होंने बताया था कि उपायुक्त के दफ़्तर से कोई प्रेस नोट के साथ ये भी दे गया जो अखबार की कोई खबर नहीं बन सकता इसलिए सही जगह कूड़ेदान में पहुंच गए रद्दी कागज़। रचनाएं अच्छी या खराब की बात नहीं मगर जिनको मिली उनको किसी काम की नहीं लगी। मुझे लगा चलो इतना तो पता चला शहर का बड़ा अधिकारी साहित्य में रूचि रखता है।
मैंने अगले दिन उनको फोन कर बताया हम शहर में कुछ लिखने वाले हैं जो कब से साहित्य की इक संस्था का गठन करने की कोशिश करते रहे हैं मगर सफल नहीं हुए। उन्होंने मुझसे सभी ऐसे लोगों को बुलाने को कहा तो मैंने कहा कोशिश करता रहा मगर कोई न कोई रूकावट खड़ी हो जाती है। ठीक है आप मुझे सबके फोन नंबर भेज देना किसी दिन मैं खुद सबको इकट्ठा कर साहित्य की सभा गठित कर लूंगा। और फिर हरिवंश राय बच्च्न जी का निधन होने पर श्रद्धा अर्पित करने को सभा बुलाई गई जनवरी 2003 का आखिरी सप्ताह था। हर महीने पच्चीस तीस लोग मिलते कविता पाठ करते मगर वास्तव में कोई अफसराना ढंग उनका नहीं था सब इक समान थे बड़े छोटे का कोई भेदभाव नहीं था। तबादला होने पर उन्होंने कोशिश की थी इक चेक सरकारी कोष से देने की लेकिन हम सभी ने स्वीकार नहीं किया क्योंकि हम सभी सदस्यों ने जितने भी आयोजन किये थे खुद अपनी जेब से पैसे खर्च कर किये थे। कभी किसी अधिकारी किसी नेता किसी धनवान सेठ साहूकार से चंदा नहीं मांगा था। मगर सभी अधिकारी इक जैसे नहीं होते इसका अनुभव भी होता रहा है।
साहित्य अकादमी का निदेशक हमेशा कोई अव्वल दर्जे का लेखक होता है मगर इक बार सत्ता से मधुर संबंध रखने वाले इक पब्लिशर पर शासक की अनुकंपा हुई। उनका कारोबार पुस्तक छापने से अधिक बेच कर कमाई करने का था। बस उन्होंने अंधा बांटे रेवड़ियां मुड़ मुड़ अपनों को दे की बात सच साबित कर इक ऐसी परंपरा शुरू की जिसको भविष्य में कोई बदल नहीं सकता है। शासक राजनेताओं का नाम उनकी महिमा का गुणगान कर साहित्य अकादमी का बजट बढ़ते बढ़ते कई करोड़ हो गया। राज्य भर में साहित्य चेतना यात्रा का आयोजन किया गया लेकिन शहर के लिखने वालों से नहीं मिल कर अधिकारी वर्ग के साथ जलपान आदि करते करते साहित्य को छोड़ अन्य मकसद साधते रहे। जब जो भी राजनेता सत्ता में आता है उसी तौर तरीके से अपने अधिकार का उपयोग करता है। कुछ साल पहले शासक की पहचान का इक लेखक उनसे मिलने उनके निवास राजधानी गया और अपनी दो पुस्तक भेंट की उनको। शासक ने अपने संगठन के साथी को अगले ही दिन दो लाख की पुरुस्कार राशि देने की बात कह दी। साहित्य अकदमी के नियम में बदलाव कर मैं चाहे जो करूं मेरी मर्ज़ी शासक ने कर दिखलाया। ऐसे ही किसी अन्य को सम्मान पुरुस्कार देना था लेकिन वो अपने राज्य में रहते नहीं थे तो किसी और के घर के पते पर रहने की व्यवस्था औपचरिकता निभाने को करना कोई कठिन नहीं था। साहित्य में बड़े अधिकारियों को महत्व देना काम आता है लेकिन उनको आरक्षण की आवश्यकता पड़ना उनकी गरिमा के अनुकूल नहीं लगता है। ये कुछ अलग ढंग का तालमेल है भाईचारा से बढ़कर याराना बनाने की बात है। ऊपर जाने की सीढ़ी जो आपको वास्तव में नीचे धकेलती है। काल्पनिक रचना है किसी व्यक्ति की बात नहीं व्यवस्था की बात है। संयोग से घटना मेल खा जाए तो अलग बात है इरादा किसी पर आरोप आक्षेप लगाना हर्गिज़ नहीं। चोर की दाढ़ी में तिनका जैसा होना मुमकिन है।
पोल खोल दी सर आपने...☺️ अब भला इस लेख को कौन छापे इतनी खरी खरी सुनकर
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