नवंबर 23, 2021

धर्म ईश्वर धार्मिक स्थलों का रहस्य ( चिंतन-मनन ) डॉ लोक सेतिया

  धर्म ईश्वर धार्मिक स्थलों का रहस्य ( चिंतन-मनन ) डॉ लोक सेतिया 

ये सवालात पुराने हैं बचपन से दादाजी मुझसे धार्मिक किताबों को पढ़ कर सुनाने की बात करते थे। जाने क्यों धार्मिक कथाओं को पढ़ते पढ़ते मेरे मन में कई बातों पर उलझन होती थी तार्किक दृष्टि से समझना चाहता था बालमन। दादाजी परिवार के बड़े आदरणीय सदस्यों से बहस करना अनुचित होता ये शिक्षा मिली थी फिर भी घर में जब कभी भगवाधारी संत साधु सन्यासी आया करते तब उनसे पूछने की कोशिश करता था जिसको वो एवं अन्य लोग बचपन की नादानी नासमझी है सोचकर महत्व नहीं देते थे। थोड़ा बड़ा हुआ तो ईश्वर धर्म को जानने समझने की उत्सुकता को नास्तिकता घोषित किया जाने लगा। मगर मन मनस्तिष्क में उथल पुथल जारी रही मैंने धर्म को लेकर कुछ किताबों का अध्यन किया धर्म उपदेशकों से मिलने पर अपनी जिज्ञासा और शंकाओं पर चर्चा की लेकिन कोई संतोषजनक जवाब किसी से मिला नहीं कभी अभी तक भी। सभी धर्म इस पर एकमत हैं कि सत्य ही ईश्वर है और ईश्वर ही सत्य है। सत्य हमेशा एक समान रहता है किसी की मर्ज़ी सुविधा से सत्य घटता बढ़ता नहीं है सत्य में झूठ की मिलावट कभी संभव ही नहीं है ठीक उसी तरह जैसे घी और जल नहीं मिलते कभी। 
 
मैंने किसी धार्मिक पुस्तक में ऐसा लिखा नहीं पढ़ा कि ईश्वर की उपासना धर्म के मार्ग पर सच्चाई की राह पर चलने के लिए किसी धार्मिक स्थल मंदिर मस्जिद गिरिजाघर गुरुद्वारा की आवश्यकता होती है। ईश्वर को पाने की नहीं समझने की ज़रूरत होती है और विधाता किसी भी नाम से मानते हैं उसको हर प्राणी में धरती के कण कण में निवास करने पर भरोसा होना चाहिए। चाहे कोई भी हो अगर धार्मिक जगह जाता हो पूजा अर्चना ईबादत नाम जपना माला फेरना जैसे कार्य करता हो लेकिन आचरण में धार्मिक पावन और हर जीव जंतु मानव से प्यार की भावना नहीं रखता हो तब उन बातों का कोई औचित्य नहीं केवल दिखावा आडंबर है। भगवान को आप कुछ भी दे ही नहीं सकते क्योंकि उसी ने दुनिया बनाई सबको जो भी मिला दिया ऐसे में दाता को भिखारी कैसे बना सकते हैं वास्तव में ईश्वर को रहने को कोई ईमारत नहीं चाहिए उसको हमको अपने हृदय में चेतना में रखना चाहिए। जब मन में परमात्मा का निवास होगा तब कोई पाप कोई अपराध कोई अन्याय कोई अत्याचार कैसे कर सकते हैं। अपने स्वार्थ में अंधे होकर सिर्फ अपनी महत्वांकाक्षा पूरी करने वाले सबसे पहले अपने भीतर से परमात्मा को बाहर निकालते हैं। 
 
धार्मिक स्थल आयोजन कभी अनुचित तरीके से नहीं किये जा सकते हैं। दान धर्म तभी उचित है जब कमाई नेक और ईमनदारी की से करते हैं। अनुचित ढंग से अवैध रूप से धार्मिक जगह बनाएंगे तो क्या ईश्वर ऐसी जगह रहना पसंद करेंगे इस विषय पर सोचना। महान साधु संतों ने कभी धनवान लोगों , शासक वर्ग या ताकत के ज़ोर पर कमज़ोरों को सताने दबाने वालों के सामने घुटने टेकना मंज़ूर नहीं किया बल्कि उनको साफ शब्दों में गलत कहने का साहस किया। इधर आजकल जिधर देखते हैं कलयुगी धार्मिक समारोह में इन्हीं लोगों को मंच पर बिठाने का कार्य कर कोई मकसद साधने की बात होती है। लोभ लालच मोह माया छोड़ने का उपदेश देने वाले खुद ऐसे जाल में फंसे हुए हैं। रिश्वतखोर व्यवसाय कारोबार में लूटने वाले अपनी काली कमाई से समाजसेवा कर धर्मात्मा कहलाना चाहते हैं। धर्म की मानव कल्याण की डगर कठिन है अधर्म पाप अनाचार अत्याचार लूटने के कर्म कर हराम की कमाई से समाजसेवा करना असली चेहरे पर नकली मुखौटा लगाना है। 
 
जिस समाज में आधी आबादी भूखी रहती है बच्चों को शिक्षा नहीं मिलती सर्दी ठंड गर्मी धूप लू बारिश में लोग छत को तरसते हैं कोई धर्म उन दीन दुखियों की सहायता छोड़ धार्मिक आडंबर करने ऊंचे ऊंचे भवन बनाने की बात कैसे समझा सकता है। जब हर धर्म की शिक्षा मानवता समानता की बात करती है तब हर जगह सभाओं में ख़ास लोग धनवान सत्ताधारी होना साबित करता है कि धर्म पालन करने से अधिक धार्मिक होने कहलाने की आकांक्षा महत्वपूर्ण हो गई है। बड़े बड़े शासक राजनेता किसी तथाकथित संत के गैरकानूनी ढंग से पर्यावरण से खिलवाड़ करने वाले समारोह में शामिल होने से देश की न्याय-व्यवस्था और नियम कानून सबके लिए बराबर नहीं होना देख कर लगता है धर्म अधर्म का अंतर मिट गया है। सभा बेशक भ्रष्टाचार का विरोध करने को लेकर हो मंच पर रिश्वतखोर अधिकारी राजनेता विराजमान होते हैं तब लगता नहीं उनकी अंतरात्मा किसी अपराधबोध से ग्रस्त होती होगी। झूठ बोलने वाले कथनी और करनी में विरोधाभास का आचरण करने वाले जिस समाज में शोहरत और इज्ज़त पाते हैं उस में धर्म बचा कहां है और ईश्वर को मानना उस का भरोसा करना नहीं बस उसके नाम का दुरूपयोग करना चलन में है। हैरानी की बात है कुछ लोग खुद को भगवान समझने को अपनी खुद की धर्म की किताबें लिख कर अनुयाईयों को भटकाने का कार्य करते हैं ईश्वर को पाने की समझने की बात भूलकर ईश्वर बनने की चाह रखते हैं। विधाता ने कभी अपना गुणगान करवाना नहीं चाहा होगा सोचने पर समझ आता है कि ऐसा कोई साधारण व्यक्ति ही चाह रखता है भगवान कदापि नहीं।
 

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