अक्टूबर 11, 2021

झूठ के गुणगान का शोर है ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया

  झूठ के गुणगान का शोर है ( हास-परिहास ) डॉ लोक सेतिया 

कल ही की बात है फेसबुक पर साहित्य के ग्रुप जिस में ताकीद की हुई है रचनाकार मौलिक रचना भेजें किसी ने कवि कालिदास से जोड़कर इक लोक कथा शेयर की हुई थी। पढ़ते ही ध्यान आया कि ये इक हरियाणवी लोक कथा है पणिहारी और मुसाफिर शीर्षक से जिस में एक नहीं चार लोग पानी पिलाने को कहते हैं। ये विचार कर ताकि शेयर करने वाले एवं पाठक सही जानकारी पा सकें मैंने कॉमेंट में लिख कर लिंक भी दिया साहित्य की साइट का पढ़ने समझने को , सच बताना आलोचना करना नहीं होता है। मगर हैरानी हुई जब रचना शेयर करने वाले ने जवाब दिया नीचे इतने सौ लोगों को जिन्होंने लाइक कॉमेंट किया पता नहीं था इक अकेले आपको जानकारी है बस आप अकेले समझदार हैं। ऐसी बहस व्यर्थ होती है इसलिए मैंने अपने कॉमेंट को मिटा दिया। कई दिनों से सोच रहा था इतिहास देश की राजनीति और धर्म आदि को लेकर तमाम बातें सच्चाई और प्रमाणिकता को जाने बगैर सोशल मीडिया पर शेयर की जाती रही हैं। लेकिन साहित्य का सृजन करने वालों से उम्मीद की जाती है तथ्यात्मक ढंग से विवेचना करने और कभी सही जानकारी नहीं होने पर वास्तविकता उजागर करने वाले का आभार जताने की। राजनेताओं के चाटुकारों की तरह झूठ को शोर मचाकर सच साबित करने की कोशिश नहीं की जानी चाहिए। बहुत लोग किसी बड़ी शख़्सियत के नाम से कितनी बातें लिखते हैं जिन का संबंधित व्यक्ति से कोई मतलब नहीं होता है। पिछले साल भी लिखा था केबीसी में भाग लेने वाली इक महिला ने अमिताभ बच्चन जी को इक कविता उनके पिता की रचना है से प्रेरणा मिली कहा तब महानायक कहलाने वाले ने सच बताना ज़रूरी नहीं समझा कि रचना किसी और की है। कोशिश करने वालों की हार नहीं होती , लहरों से डरकर नौका पार नहीं होती। रचना सोहनलाल द्विवेदी जी की है। अपने ब्लॉग पर पिता के नाम से शेयर करने पर अमिताभ बच्चन पहले भी खेद जता चुके थे फिर टीवी पर सार्वजनिक मंच से जो सच नहीं खामोश रहकर उन्होंने अपने पिता की शान बढ़ाने की बात नहीं की थी। 
 
वास्तव में अमिताभ बच्चन जी को पैसों के लिए विज्ञापनों में अपने पिता के नाम का इस्तेमाल करने से भी परहेज़ करना चाहिए । बाबूजी ऐसा कहते थे बोलते हैं मगर कोई नहीं जानता अगर बच्चन जी की आत्मा देखती होगी तो अमिताभ जी के तमाम वस्तुओं का इश्तिहार देने पर क्या गौरान्वित महसूस करती होगी। मुझे अपना इक शेर उपयुक्त लगता है ऐसे समय , " अनमोल रख कर नाम खुद बिकने चले बाज़ार में , देखो हमारे दौर की कैसी कहावत बन गई "। शायद आधुनिक काल में ग़लतबयानी झूठ बोलने पर ऊंचे पदों पर बैठे लोग भी शर्मसार नहीं होते हैं ऐसे में उनके अनुयाई चाटुकार प्रशंसक झूठ का गुणगान करने में संकोच क्या करें। साहित्य जगत और समाजिक आदर्शों के अनुसार किसी की रचना को चुराना तो दूर उनके नाम से गलत उच्चारण करना भी अक्षम्य अपराध माना जाता है और यहां हर कोई खुद को जानकार समझदार साबित करने को सच को झूठ झूठ को सच बताता है। कुछ शेर मेरी ग़ज़लों से इस विषय को लेकर आपकी नज़र करता हूं। 
 

झूठ को सच करे हुए हैं लोग , बेज़ुबां कुछ डरे हुए हैं लोग। 

फिर वही सिलसिला हो गया , झूठ सच से बड़ा हो गया। 

वो जो कहते थे हमको कि सच बोलिये , झूठ के साथ वो लोग खुद हो लिये। 

सच कोई किसी को बताता नहीं , यह लोगों को वैसे भी भाता नहीं। 

आई हमको न जीने की कोई अदा , हमने पाई है सच बोलने की सज़ा। 

उसको सच बोलने की कोई सज़ा हो तजवीज़ , लोक राजा को वो कहता है निपट नंगा है। 

झूठ यहां अनमोल है सच का न व्यौपार , सोना बन बिकता यहां पीतल बीच बाज़ार।

 
 

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