गरीबों की मुहब्बत का उड़ाया है मज़ाक ( खरी खरी ) डॉ लोक सेतिया
दो लोग दो बातें दो भिन्न भिन्न सोच को दर्शाती हैं। बात फ़िल्मी जगत की है बात उसूलों की है। ताजमहल फ़िल्म के लिए साहिर लुधियानवी को गीत लिखने को अनुरोध किया गया क्योंकि तब फ़िल्मी गीतकारों में उनका नाम का सिक्का चलता था उनकी लेखनी के कायल सभी लोग थे। मगर उन्होंने मना कर दिया था पैसे को ठोकर लगाने का कारण था उनकी लिखी ग़ज़ल फ़िल्म की खूबसूरत नज़्म ताजमहल शीर्षक की। भला ये कैसे हो सकता है कि ये लिख कर कि मेरी महबूब कहीं और मिला कर मुझको , बज़्म-ए -शाही में गरीबों का गुज़र क्या मअ'नी। सिर्फ इसलिए कि उनके पास दौलत थी अपनी मुहब्बत की निशानी बनाने को उनका इश्क़ महान था ये मज़ाक है उन मुफ़्लिस प्यार करने वालों से जिनके पास तश्हीर का सामान नहीं था। ये लिखने के बाद ताजमहल को मुहब्बत की निशानी बताना खुद से बेईमानी होती। ये बात याद आई जब अमिताभ बच्चन जी से किसी ने किसी विज्ञापन में काम करने पर सवाल किया और उनका जवाब था पैसे के लिए करना उनकी विवशता है अर्थात तथाकथित सदी का महानायक कहलाने वाला बाज़ार का बिकाऊ सामान है। पैसा मिले तो समाज को हानिकारक संदेश देने में कोई संकोच नहीं इसलिए कि वो नहीं करते तो कोई और भाजी मार जाता। आजकल करोड़पति बनाने का खेल खिला रहे हैं वही पुराने जानकर विशेषज्ञ बनकर आ रहे हैं उनके सभी जवाब विवरण सहित सही मिलते हैं ख़ास अथिति शुक्रवार आते हैं कभी नहीं हारते जीत कर हर सप्ताह उतनी राशि पाते हैं। ये सब इत्तेफ़ाक़ बार बार होते हैं लोग भगवान समझते हैं जिनको उनके निराले रंग भाते हैं शानदार ढंग से उल्लू बनाते हैं।
सेंट्रल विस्टा रिडेवलपमेंट प्रोजेक्ट आधुनिक ताजमहल की तरह है शहंशाह ख़ास विमान से अमेरिका से घर वापस आते हैं सीधे मुआयना करने पहुंच इतराते हैं। क़र्ज़ लेकर घी पियो सबको समझाते हैं सरकार बड़े लोग होते हैं हिसाब किताब नहीं सोचते मनचाही मुराद पाते हैं। क्या समझा था ये क्या साबित हुआ देशवासी मन ही मन पछताते हैं जिस देश में करोड़ों लोग भूखे नंगे बदहाल हैं राजनेता अधिकारी खूब जमकर खाते हैं जनता को इक नया कार्ड देकर बहलाते हैं। सावन के अंधे हर तरफ हरियाली देख कर झूमते नाचते गाते हैं सत्ताधारी संविधान अदालत सबको ठेंगा दिखाते हैं। ऐसी इमारतों महलों शानदार नज़ारों से बदनसीब जनता का पेट नहीं भरता है जाने किन लोगों की चाहत का सामान है हमसे पूछो बस तो वक़्त रोटी रहने को घर पीने को पानी बुनियादी सुविधाओं का अरमान है। अपने हिस्से कुछ नहीं क्योंकि कुछ ख़ास लोगों को जितना मिलता है थोड़ा लगता है। देश की वास्तविक तस्वीर दिखाने वाला सरकार को राह का रोड़ा लगता है। उनको प्यार है दौलतमंद दुनिया से कितना प्यारा उनको बैंक से क़र्ज़ लेकर चंपत होने वाला भगोड़ा लगता है। ताजमहल की तरह कितनी भव्य आलीशान इमारतें अपनी बुनियाद में शासकों के ज़ुल्मों और बेमौत ज़िंदा लाशों को छुपाये रखते हैं। अब कोई साहिर भी नहीं जो उनकी वास्तविकता पर अपनी कलम से कोई कविता कहानी नज़्म लिखता जिस को पढ़कर शायद कभी इतिहास की कालिख़ का पन्ना कहीं दर्ज होता भविष्य को अंधकार और रौशनी का अंतर समझाने को।
सार्थक लेख...👍
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