मई 23, 2021

जहांपनाह भावुक हुए ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

        जहांपनाह भावुक हुए ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

 नहीं टीवी चैनल वाले नहीं देख सकते अपने पालनहार के मुखमंडल पर उदासी का भाव। जनता का क्या है रोना उसका नसीब है आपकी पलकों पर नमी नहीं अच्छी लगती है। दिन भर यही सबसे ज़रूरी खबर चलती रही। मान गए प्यार हो तो ऐसा ही हो अपने महबूब का खिलता चेहरा कभी मुरझाया नज़र नहीं आये सच टीवी एंकर को लग रहा था खबर पढ़ना छोड़ वो भी रो दे काश कि सामने बैठे होते हज़ूर तो अपने टिशू पेपर से उनकी पलकों को पौंछती। आंचल दुपट्टा रहा नहीं क्या करें साड़ी का पल्लू ही होता लेकिन फैशन जीन टॉप का ठहरा। जो हमने दास्तां जनता की सुनाई आप क्यों रोये तबाही तो वाराणसी की जनता पे आई आप क्यों रोये। ये गीत बजाना चाहिए था मगर हो नहीं पाया मगर जहांपनाह की उदासी की वजह कुछ लोगों की जान जाना नहीं हो सकता है। मामला गंभीर है मन की बात शायद अभी कुछ समझनी समझानी रह गई है। इस में कोई शक नहीं कि वास्तविक कीमती अश्क़ वही होते हैं जिनको कोई पलकों से ढलने नहीं देता चुपचाप पी जाते हैं बेबसी के आंसू लोग आह भी नहीं भरते। लेकिन कीमत समझी जाती है उन अश्क़ों की जो बहते ही नहीं किसी दामन को भिगोते भी हैं। टुकड़े हैं मेरे दिल के ए यार तेरे आंसू , देखे नहीं जाते हैं दिलदार तेरे आंसू। उनका हाल देख कर लोग ज़ार ज़ार रोने लगे , हमारा दर्दो ग़म है ये इसे क्यों आप सहते हैं फ़ना हो जाएगी सारी खुदाई आप क्यों रोये। सैलाब की तरह बहाकर ले गए सभी को इतने लोग तो समंदर में आये ताउते तूफ़ान में तबाह नहीं हुए जितना उनकी भीगी पलकों में डूब कर फ़नाह हो गए हैं। 
 
 आंसुओं की दास्तां लिखते लिखते कथाकार की कलम उदास हो जाती है। आशिक़ के अश्क़ों पर कितने बेमिसाल शेर हैं शायरी में अश्क़ का रुतबा बड़ा ऊंचा है मुस्कुराहट की तो कोई कीमत नहीं आंसुओं से हुई है हमारी क़द्र , उम्र भर काश हम यूं ही रोते रहें आज क्योंकि हुई है हमें ये खबर। बादलों की तरह हम तो बरसे बिना लौट जाने लगे थे मगर रो पड़े। आज दिल पे कोई ज़ोर चलता नहीं मुस्कुराने लगे थे मगर रो पड़े। कभी लिखा था हमने भी बस ज़रा सा मुस्कुराए तो ये आंसू आ गए वर्ना तुमसे तो कहना ये अफ़साना न था। ये राजनीति है जनाब यहां एक एक आंसू का हिसाब रखते हैं गिन गिन कर बदला लेते हैं। कोई कलाकार पेंटिग बना सकता है बादशाह के इंसाफ के तराज़ू के पलड़े पर कितनी लाशें एक पलड़े पर मगर झुका हुआ पलड़ा होता है जिस पलड़े पर किसी का इक आंसू गिर गया है। महिलाओं को अच्छी तरह मालूम है ये हथियार कभी नाकाम नहीं होता है उनका रोना किसी को जीवन भर रुला सकता है जब कोई तरकीब नहीं काम आती है आज़मा सकता है। आंसुओं पर दो कविताएं इक नज़्म पेशा हैं।

दो आंसू ( कविता ) 

हर बार मुझे
मिलते हैं दो आंसू
छलकने देता नहीं
उन्हें पलकों से।

क्योंकि
वही हैं मेरी
उम्र भर की
वफाओं का सिला।

मेरे चाहने वालों ने
दिया है
यही ईनाम
बार बार मुझको।

मैं जानता हूं
मेरे जीवन का
मूल्य नहीं है
बढ़कर दो आंसुओं से।

और किसी दिन
मुझे मिल जायेगी
अपनी ज़िंदगी की कीमत।

जब इसी तरह कोई
पलकों पर संभाल कर 
रोक  लेगा अपने आंसुओं को
बहने नहीं देगा पलकों  से
दो आंसू।  
 

मां के आंसू ( कविता ) 

कौन समझेगा तेरी उदासी
तेरा यहाँ कोई नहीं है
उलझनें हैं साथ तेरे
कैसे उन्हें सुलझा सकोगी।

ज़िंदगी दी जिन्हें तूने
वो भी न हो सके जब तेरे
बेरहम दुनिया को तुम कैसे 
अपना बना सकोगी।

सीने में अपने दर्द सभी
कब तलक छिपा सकोगी
तुम्हें किस बात ने रुलाया आज
मां
तुम कैसे बता सकोगी।

बड़े लोग ( नज़्म ) 

बड़े लोग बड़े छोटे होते हैं
कहते हैं कुछ
समझ आता है और

आ मत जाना
इनकी बातों में
मतलब इनके बड़े खोटे होते हैं।

इन्हें पहचान लो
ठीक से आज
कल तुम्हें ये
नहीं पहचानेंगे

किधर जाएं ये
खबर क्या है
बिन पैंदे के ये लोटे होते हैं।

दुश्मनी से
बुरी दोस्ती इनकी
आ गए हैं
तो खुदा खैर करे

ये वो हैं जो
क़त्ल करने के बाद
कब्र पे आ के रोते होते हैं।  
 

 
 
 
 
 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें