जनवरी 10, 2021

बेहयाई हुनर हो गई है ( भली लगे या लगे बुरी ) डॉ लोक सेतिया

  बेहयाई हुनर हो गई है ( भली लगे या लगे बुरी ) डॉ लोक सेतिया 

 अब सभी को खबर हो गई है , बेहयाई हुनर हो गई है। ये है तो मेरी ग़ज़ल का मतला अर्थात पहला शेर जो कहा था जाने किन हालात पर मगर आज व्यंग्य रचना का शीर्षक बन गया है जैसे कुछ साल पहले जो काम घोटाले करना मानते थे आजकल कितने भले भले नामों से शान पूर्वक आदर से गर्व से संबोधित करते हैं। जैसे कुछ शब्दों के अर्थ अलग अलग समझाए जाते हैं कभी किसी शब्द की परिभाषा तक बदल देते हैं अब सत्ता ने सब बदलना चाहा तो शब्दकोश को ही बदल डाला है कुछ नहीं बदला तो उनका इरादा। चाल चलन चेहरा सभी बदले हुए हैं लोकलाज को छोड़ बाज़ार लगाए हुए हैं ये सभी लोग दोषमुक्त हैं सत्ता की गंगा नहाये हुए हैं।

  अधिक विस्तार में नहीं जाकर फिर से बताना है 2002 में लिखा लेख कादम्बिनी  के फरवरी अंक में छपा था , आज तक का सबसे बड़ा घोटाला। सरकारी विज्ञापन की ही बात थी और आंकड़े देकर बताया था कि पिछले पचास साल से तब तक जितना धन इस तरह से खर्च नहीं बर्बाद कहने से भी आगे बढ़कर कह सकते हैं टीवी अख़बार वालों को खुश करने अपने प्रभाव में रखने को सभी घोटालों की धनराशि से अधिक कुछ मुट्ठी भर लोगों को फायदा पहुंचाने को किया जाता रहा सभी सत्ताधारी लोगों द्वारा। मुझे याद है जो आज सत्ता पर काबिज़ हैं तब उनको मेरी बात सौ फीसदी सही लगी थी , मगर शायद उन्हीं की सरकार ने पिछली सभी सरकारों को बहुत पीछे छोड़ दिया है। पहले बात अपने आलोचना से बचना भर था जो आज उस से बहुत खतरनाक बढ़ कर चुनावी जीत का साधन बना लिया गया है। आज सत्ताधारी दल के नेता मानते ही नहीं दावा करते हैं कि चुनाव सोशल मीडिया के दम पर उसका सहारा लेकर लड़ना है और जीतना है। आपको इस का अर्थ समझना होगा। बीस साल में राजनीति बदलते बदलते बदकार हो गई है उनकी जीत जनता की हार हो गई है काठ की हांडी बार बार चढ़ती है चमत्कार होते होते झूठ वाला इश्तिहार हो गई है। सरकार आदत से लाचार हो गई है नीयत खराब है बदन भला चंगा है बाहर से भीतर से मगर खोखला है जिस्म खूबसूरत सजा है सोच बीमार हो गई है। फूलों ( मूर्ख अंधभक्तों ) को क्या खबर है दुल्हन की डोली जिसे समझ रहे हैं किसी बदनसीब की लाश है ज़िंदा है फिर भी अर्थी तैयार हो गई है। 

   रैना बीती जाये शाम न आये , निंदिया न आये। गीत गा रही है नायिका जिसको हमदर्दी जतला कर कोठे पर लाया है कोई भलाई की आड़ में कमाई करने वाला। तभी शराबी नायक घर से परेशान भटकता सुरीली आवाज़ सुनकर कोठे की सीढ़ियां चढ़ ऊपर चला आता है। छलिया धोखेबाज़ खुश होकर स्वागत करता हुए कहता है अरे आनंद बाबू आप और इस मंदिर में। कहानी बदली हुई है बिकना बेबस जनता को है बाज़ार सत्ता का है खरीदार बड़े बड़े धनवान लोग हैं। मुजरा राजनीति की वैश्या कर रही है। सरकार ने अपना सभी कुछ जुए की चौसर बिछा दांव पर लगा दिया है। खुद सरकार ने बुलाया है अपने बंधुओं को शकुनि की चालों के साथ जीतने को। ये अंधे राजा की सभा है जिस में कितने अंधे सभी को रास्ता दिखला रहे हैं। जुआ खेलने के फायदे बता रहे हैं टीवी पर शहंशाह करोड़पति बना रहे हैं। जिधर जाना मना है उधर ले जा रहे हैं क़ातिल को चाटुकार मसीहा बता रहे हैं। 

ये चारागर समझदार है सौदागर भी है मतलब निकलते पत्नी बदल ली मगर गुड़ गोबर हो गया। आधुनिक नई पत्नी का बनाया गुड़ बाज़ार में बिकता नहीं मगर अब पछताए क्या होय जब चिड़िया चुग गई खेत। जो बीमार थे उनका ईलाज नहीं किया और जो भले चंगे थे उनको भूखा रखकर मरने की हालत तक पहुंचा कर कहते हैं उनकी भलाई कोठे का धंधा करने वाले हमदर्द चालबाज़ धोखेबाज़ के हवाले करने में है। ज़हर पिलाता तो क़ातिल कहलाता इसलिए उसने दवाएं नहीं देकर उनपर उपकार किया है। दस्तक फिल्म की कहानी साथ जुड़ती है भोले भाले पति पत्नी बदनाम बाज़ार में घर किराये पर ले लेते हैं। रोज़ कोई खरीदार दस्तक देता है कोठा समझ कर। क्या खूबसूरत ग़ज़ल है मजरूह जी की लिखी हुई। हम हैं मता ए  कूचा ओ बाज़ार की तरह , उठती है हर निगाह खरीदार की तरह। मजरूह लिख रहे हैं वो अहल ए वफ़ा का नाम , हम भी खड़े हुए हैं गुनहगार की तरह। अच्छे दिन दिखाने की बात थी और जनाब ने जिस्मफ़रोशी का बाज़ार खोल दिया है। पुरानी फिल्मों को दोबारा बनाने लगे हैं जहांपनाह समझाने लगे हैं खेतों को कोठे बनाने लगे हैं बिगड़े रईसों को जन्नत दिखाने लगे हैं। तरीके नये आज़माने लगे हैं हर किसी के होश अब ठिकाने लगे हैं। घर घर खरीदार बुलाने लगे हैं जो बिकते नहीं उनको मनाने लगे हैं अनुबंध की बात सिखाने लगे हैं गुलामी को बरकत बताने लगे हैं। रईस उनको इतना भाने लगे हैं कि दुनिया उन्हीं पर लुटाने लगे हैं। ज़मीर बेचकर बहुत कुछ पाने लगे हैं चाल चलकर क्या नहीं हथियाने लगे हैं।  
 


 

1 टिप्पणी: