जनवरी 03, 2021

ज़िंदगी पर सबका एक सा हक़ हो ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया

  ज़िंदगी पर सबका एक सा हक़ हो ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया 

 

     साल नया है नया ज़माना अभी तक आया नहीं है। लोग भूल गए ऐसी कहानियों पर फिल्म बनाया करते थे फ़िल्मकार। फिल्म का उद्देश्य कहानी के शुरू होने से पहले पर्दे पर लिखा दिखाई देता था। " ज़िंदगी पर सब का एक सा हक़ है सब तस्लीम करेंगे , सारी खुशियां सारे दर्द बराबर हम तक़्सीम करेंगे। " फिर से सुनना गीत नया ज़माना आएगा , नया ज़माना आएगा। कितनी बार देखी है कल फिर से देखी तो लगा ये तब केवल कहानी रही होगी आज की हक़ीक़त यही है। ख़लनायक गरीबी मिटाने और गरीबों से प्यार करने से नशाबंदी तक पर धारदार भाषण देकर नायक बन जाता है किसी गरीब लेखक अख़बार वाले से ऊंचे आदर्श की अच्छी बातों का भाषण लिखवाकर जनता से तालियां बजवाता है। वास्तविक ज़िंदगी में उसका आचरण बिल्कुल उलट होता है। खलनायक की बहन लेखक से उसकी पांडुलिपि ले आती है उपन्यास लिखा हुआ छपवा नहीं पाया और धनवान खलनायक उस से पांडुलिपि लेता है छपवाने को मगर लेखक की रचना चुराकर अपने नाम से छपवा लेता है। धनवान भाषण देता है तथाकथित रईस लोगों की सभा में गरीबों से नफरत नहीं करने की बात कहते हुए पर इक गरीब भूखा बच्चा जब धनवान सभी को भोजन कक्ष में चलने को कहता है तब भूख मिटाने उन अमीरों के बीच चला आता है और अपमानित किया जाता है। नायक उसको बचाता है और ये सुनकर कि उसकी गरीबी भूख हमारे कारण नहीं है नायक बताता है जब कोई भूखा रहता है तब उसका कारण किसी और का उसके हिस्से का भी खा जाना ही होता है। अफ़सोस है ऐसी बातों को पहले तो हम सुनते ही नहीं सुनाई दे भी तो विचलित नहीं होते क्योंकि हम समझते ही नहीं हैं। 
 
आपको लगता है आपने नानक कबीर गांधी को जान लिया है लेकिन शायद नाम तस्वीर से जान पहचान हुई है उनकी सोच से नहीं। गांधी जी कहते थे दुनिया में सबकी ज़रूरत को तो काफी कुछ उपलब्ध है मगर किसी की लालच हवस की भूख को मिटाने को नहीं है। जो गांधी किसी को बिना कपड़े पहने देख जीवन भर इक धोती पहनता है और अंतिम व्यक्ति के आंसू पौंछने का मकसद समझता है उसकी समाधि पर वो लोग जाकर बड़ी बड़ी बातें करते हैं जो खुद अपने रहन सहन और शानो शौकत दिखावे आडंबर और अपने गुणगान पर सैर सपाटे पर धन पानी की तरह बर्बाद करते हैं जबकि समय पानी को भी व्यर्थ खर्च नहीं करने का है। नानक को समझना और भी कठिन है मगर समझना चाहो तो ज़रा सोचना आज से पांच सौ साल पहले बीस रूपये में कोई कितना सामान खरीद कर पिता के कहने पर कारोबार कर सकता था मगर उसको रास्ते पर भूखे लोग मिले और उसने सोचा उनकी भूख मिटाने से बढ़कर अच्छा कारोबार कोई नहीं हो सकता है। आप जो लंगर की सोच देखते हैं आज भी वहीं से शुरू हुई थी। धर्म कोई भी हो सच की बात इंसानियत के दुःख दर्द मिटाने और प्यार से मिलकर रहने महनत की कमाई करने की सीख देता है। धर्म स्थल उपदेश देने को नहीं बनाए गए थे और वहां संचय करना तो हर धर्म के खिलाफ है। संत महात्मा साधु सन्यासी भिक्षा मांगते थे बस दिन भर पेट भर भोजन और दो जोड़ी कपड़े पहनने को। भटके हुए अथवा कपटी लोग हैं जिनको उपदेश देने गीता रामायण पाठ करने से लाखों पाने की चाहत है उनको खुद नहीं समझ आया जो औरों को बताते हैं। 
 
आपने रहीम का भी नाम सुना है मुमकिन है उनके दोहे भी पढ़ते हों। समझा भी है उनका संदेश और ये भी कि कथनी और करनी एक समान होनी चाहिए। रहीम इक नवाब थे और कवि भी वे अपने पास आने वालों की सहायता किया करते थे। उनकी सभा में कवि गंगभाट बैठे थे उन्होंने देखा कि नवाब साहब जब किसी को कुछ राशि देते उनकी नज़रें झुकी रहती थी। गंगभाट को ये कुछ अजीब लगा और उन्होंने इक दोहा पढ़कर सवाल पूछा रहीम से। ये क्या सलीका क्या ढंग है जब कोई आपके सामने हाथ बढ़ाता है उसकी सहायता करते समय आप उसकी तरफ नज़र नहीं उठाकर देखते झुकी रहती हैं आपकी आंखें। रहीम जी ने उनके दोहे का जवाब दोहा पढ़कर ऐसे दिया था। देवनहार कोई और है जो मुझे रात दिन देता रहता है मैं तो जो उस से मिलता है आगे औरों को दे देता हूं वास्तविक देने वाला वो ईश्वर है , मगर लोग समझते हैं कि मैं दे रहा हूं। बस इसी से मेरी नज़र उठती नहीं झुकी रहती हैं। अब ज़रा इन शासकों को देखो ये कुछ भी निजी आय से नहीं जनता का दिया धन उनकी किसी तरह से कल्याण की योजना पर खर्च करते हैं और दावा करते हैं इश्तिहार छपवाते हैं अपना नाम जोड़ते हैं अहंकार रखते हैं कि हमने किया है। सच तो ये है उन्होंने देश को देशवासियों को कुछ भी नहीं दिया बल्कि देश के खज़ाने से खुद अपने पर धन बर्बाद किया है। काश ये सादगी से निस्वार्थ ईमानदारी से अपना कर्तव्य निभाते तो आज़ादी के 73 साल बाद भूख और बुनियादी सुविधाओं की कमी नहीं रहती। ये लोग सफेद हाथी की तरह हैं जो खुद बोझ हैं इनसे कोई भलाई नहीं हो सकती साफ शब्दों में इनको देश की समस्याओं भूख गरीबी शिक्षा स्वास्थ्य सेवाओं को सुलझाना नहीं है उसका उपयोग करना है सत्ता हासिल करने को और अपने लोगों और उच्च वर्ग की महत्वांकांक्षाओं को पूरा करने को। 
 
आपने अर्थव्यवस्था का शोर सुना तो ज़रूर है क्या समझा भी है। कुछ के पास अधिक तभी होता है जब बाकी अधिकांश को उनका उचित हिस्सा अधिकार मिलता नहीं उन्हीं से। ऐसे लोग अमीर हैं अपनी महनत से नहीं तमाम औरों को उनकी महनत का मूल्य नहीं देकर। अमृतय सेन को विदेश जाकर नोबल पुरूस्कार मिलता है मगर उनका सम्मान करते हैं सत्ताधारी संसद में लेकिन उनकी सुझाई अर्थव्यवस्था को नहीं अपनाते और विश्व बैंक आईएमएफ जैसी संस्थाओं की जनहित विरोधी नीतियों को अपनाकर बदहाली और बेबसी की हालत में पहुंच कर आत्मनिर्भरता की बात कहते हैं छलते हैं विदेशी शासकों की तरह कुछ निजी कंपनियों के बुने जाल को बढ़ावा देकर।  
 
सिर्फ कहने को गर्व की बात नहीं है हमारी भारतीय संस्कृति और विचारधारा जिस में सभी के कल्याण की बात है और नीतिकथाओं और उच्च नैतिक मूल्यों की बात है उस में समझाया गया है कि शासक और सामान्य नागरिक की आमदनी का फर्क सीमा से अधिक नहीं होना चाहिए और जब सामान्य नागरिक को जितना मिलता है बड़े से बड़े पद पर नियुक्त व्यक्ति को उस से हज़ार गुना से अधिक पाना राज्य की व्यवस्था पर अभिशाप है कलंक है शासक पर। बात शुरू की थी फिल्म नया ज़माना का खलनायक अपने पुस्तकालय में सभी महान विचारकों की लेखकों की किताबें जमा की होती हैं पढ़ने को नहीं आडंबर करने को और किसी से लिखवाकर शानदार भाषण देता है समझता ही नहीं उनका पालन करना तो चाहता भी नहीं।  

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