दिसंबर 08, 2020

ज़हर भी जो पिलाता है कह कर दवा ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया

 ज़हर भी जो पिलाता है कह कर दवा ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया 

 हैं कुछ ऐसे भी इस दौर के चारागर , ज़हर भी जो पिलाते हैं कह कर दवा। ये शेर मेरी बहुत पुरानी ग़ज़ल से है जिसे ब्लॉग पर 2012 में लिखा पोस्ट किया हुआ है और ये ग़ज़ल मेरी आम सी रचना है जिसको किताब छपवानी होगी तब शामिल नहीं किया जा सकता है। दवा के नाम पर ज़हर देने वाले लोग होते हैं तो ऐसे भी लोग होते हैं जो दवा ही नहीं देते और सबकी नज़र से बचे रहते हैं। उनपर किसी क़त्ल का इल्ज़ाम नहीं लगता है। ये बताना ज़रूरी लगा मुझे किसी से घबराकर डर कर नहीं बल्कि इसलिए बताया है कि ऐसे लोग कोई अभी नहीं दिखाई दे रहे बल्कि पहले भी मिलते रहे हैं। किसानों की बारी अब आई है जबकि कितने लोग पहले उनके इसी तरह के ईलाज से बेहाल होकर झांसे में आकर अपना सब जो भी जीवन भर की महनत की कमाई थी लुटवा चुके हैं। किसान उनकी बात पर भरोसा नहीं करते कि यही ज़हर उनके दुखों का सही इलाज है। मगर किसान कोई सिरफिरे आशिक़ नहीं किसी फिल्म वाले जो क़व्वाली गाते हैं " न तो कारवां की तलाश है अब न तो  हमसफ़र की तलाश है। जो दवा के नाम पे ज़हर दे उसी चारागर की तलाश है "। 
  बरसात की रात फ़िल्म की क्या खूबसूरत क़व्वाली है मधुबाला जैसी खूबसूरती की मिसाल नायिका , और  साहिर लुधियानवी  जी की लिखी रचना रोशन का संगीत मन्ना डे और आशा भौंसले की आवाज़। 
 
    जाने क्यों ऐसे लोगों का धंधा कभी मंदा नहीं होता जिनको लेकर दूर दूर तक खबर पहुंचती रहती है कि अमुक गांव या छोटे से शहर या किसी अनजान वीरान जगह कोई पुड़िया देता है जो गंभीर बिमारी को ठीक कर देती है। लोग इधर उधर से निराश उनके पास चले जाते हैं बाद में जो होता है किसी को पता नहीं चलता और जब वास्तविकता समझ आती है हाथ मलने से होता कुछ नहीं। हम समझते हैं जो स्वास्थ्य सेवाओं से संबंध रखते है कि वो लोग वास्तव में कुछ बेहद हानिकारक दवाओं को बिना सही जानकारी के जैसे कुछ स्टीरॉइड्स होते हैं अथवा दमे के लिए या नशे की गोलियों को पीसकर पुड़िया बनाकर देते हैं। उनका असर ऐसा होता है कि रोग के लक्षण नहीं रहते रोग खत्म होने की जगह और कितने रोग मिलते जाते हैं। नशामुक्ति की बात करने वाले खुद नशा करते ही नहीं इक नशा छुड़वाने को दूसरा करवाने लगते हैं। कनक कनक से सौ गुनी मादकता अधिकाय दोहा बदलकर लिखना पड़ेगा क्योंकि सत्ता से बड़ा नशा और दौलत से बढ़कर मदहोशी कोई नहीं इनके होने पर आदमी आदमी नहीं रहता और ज़मीन पर पांव नहीं पड़ते आकाश के उड़ान भरते रहते हैं। सरकार जनाब को जब समझ आया कि पांव तले ज़मीन भी चाहिए तो उनको भगवान विष्णु के वामनावतार लेकर इक बौने ब्राह्मण बन रहने को राजा बलि से तीन कदम ज़मीन देने का वचन मांग लिया। पहले कदम में सारी पृथ्वी दूसरे में देवलोक अपना आकार बढ़ाकर लेने के बाद तीसरा पांव रखने को राजा बलि को अपना सर सामने करना पड़ा और पाताल लोक में जाना पड़ा था। तीन कानून तीन पांव में धरती पाने जैसा ही है लेकिन किसान राजा बलि की भूल नहीं दोहराना चाहते हैं। उनको माजरा समझ आने लगा है। 
 
    2014 में देश को ऐसा ही नीम हकीम खतरा ए जान ऐसा मिला कि मर्ज़ बढ़ता ही गया ज्यों ज्यों दवा की। उस राजनैतिक दल के पास वही पुड़िया वाला बाबा संत हकीम वैद डॉक्टर सभी कुछ है। टीवी पर देखते हैं उस दल का जो भी कोई किसी भी विषय पर समस्या से लेकर धर्म और राजनीति तक चर्चा अथवा ब्यान देते समय वही इक नाम अवश्य बार बार दोहराता है। वो शख्स उसकी सरकार जैसे राम नाम जपने के बिना भक्ति सिमरण जयकारा लगाना भूलना नहीं सभी दोहराते हैं। उनके पास बस वही इक नेता सब कुछ है बाकी दल के सदस्य से नेता तक गिनती में नहीं हैं गिनवाए जाते हैं कहने को संख्या लाखों करोड़ों लेकिन कोई हैसियत नहीं। ये चाटुकारिता की आखिरी हद है जहां किसी को भगवान बनाया जाता है और उनके चाहने वाले भक्त कहलाते हैं जिनको ध्यान रहता है जिसको भगवान कहा है उसकी हर बात सही और सच है। उसका झूठ भी इनको सच से अधिक अच्छा लगता है। बस अब उनको संविधान न्याय लोकतंत्र में विचारों का मतभेद या विरोध अपने नेता से असहमत होने वाले लोग भाते नहीं हैं। उनको कोई ये नहीं समझा सकता है कि चुनाव जीत जाने से किसी नेता को जनभावनाओं के ख़िलाफ़ निर्णय करने की मनमानी करने का अधिकार नहीं होता है। जिन लोगों ने आपको सत्ता पर बिठाया है उनके साथ अहंकार की भावना का अंजाम आपत्काल का नतीजा बाद में सामने आता है तब बड़े बड़े सत्ताधारी नेताओं की ज़मानत ज़ब्त हो गई थी। जिनकी आलोचना करते हैं उनकी तरह से आचरण करना तो लगता है समय से सबक नहीं सीखा है। 
 
लोकनायक जयप्रकाश नारायण जी की 25 जून 1975 की बात शायद याद दिलवानी ज़रूरी है। मुझे कभी नहीं भूला उनका भाषण दिल्ली के रामलीला मैदान में खुद जाकर सभा में सुना था ये मेरे लिए बड़ी खुशनसीबी की बात है। तब देश भर में विपक्षी दलों का विरोध का दिल्ली की गद्दी पर बैठे सत्ताधारी के ख़िलाफ़ जारी था और जेपी ने अपने संबोधन में इक बात कही थी। सुरक्षा बलों से कहा था कि क्योंकि शांतिपूर्वक विरोध करना जनता का संवैधानिक अधिकार है इसलिए जब लोग ऐसा कर रहे हों तब आपको किसी सत्ताधारी नेता या अधिकारी के आदेश पर उनका दमन करने को लाठी गोली नहीं चलानी चाहिए। क्योंकि देश की पुलिस या सुरक्षा बल देश और संविधान और न्याय के लिए हैं अत्याचार करने को नहीं है और अन्य अत्याचारी निर्देश को नहीं मानना चाहिए। आपत्काल घोषित करने को उनका भाषण आधार बनाया गया था। विडंबना की बात है कि जो आजकल सत्ता पर काबिज़ हैं वो आपत्काल की निंदा करते हैं मगर उस समय के सत्ताधारी से बढ़कर निरंकुश आचरण कर रहे हैं। उस समय किसी को हर कीमत पर अपनी कुर्सी बचानी थी और आज के सत्ताधारी को भी ज़िद है कि अपने थोपे जनविरोधी कानूनों को हटाना नहीं बल्कि उस को अच्छी फायदेमंद दवा बताकर पिलाना है किसान जिसे ज़हर समझते हैं पीना नहीं चाहते हैं। खेल  तमाशा किसी और का है खिलाड़ी कौन है और तमाशबीन कौन लेकिन जिसके पास गेंद बल्ला है बहुमत है उसका दावा है पहली दूसरी तीसरी चौथी सभी खेलना उसी को है बाक़ी मैदान से बाहर खड़े रह चुप चाप खेल का सत्यानास होते देख ताली बजाएं। अंपायर खुद वही है कौन आउट करार दे सकता है विपक्ष की हर गेंद नोबॉल घोषित है। ग़ज़ल पढ़ कर समझना।

ग़ज़ल - डॉ लोक सेतिया "तनहा"


आई हमको न जीने की कोई अदा
हम ने पाई है सच बोलने की सज़ा।

लब पे भूले से किसका ये नाम आ गया
जो हुए बज़्म के लोग मुझ से खफ़ा।

हो गया जीना इन्सां का मुश्किल यहां
इतने पैदा हुए हैं जहां में खुदा।

हैं कुछ ऐसे भी इस दौर के चारागर               ( चारागर = चिकित्सक )
ज़हर भी जो पिलाते हैं कह कर दवा।

हाथ में हाथ लेकर जिएं उम्र भर
और होता है क्या ज़िंदगी का मज़ा।

आज "तनहा" हमें मिल गई ज़िंदगी
छोड़ मझधार में जब गया नाखुदा।            ( नाखुदा  = माझी )
 
कव्वाली का मज़ा लेना हाज़िर है। बरसात की रात। आजकल सर्दी की ढंडी रात है।
 
 
 

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