जिसकी नीयत में दग़ा है ( व्यंग्य ) डॉ लोक सेतिया
जिसकी नीयत में दग़ा है आप होता है खराब , ख़ोशा -ए -गंदुम को देखो कब से दाता दान है।
( मीर सोज़ )
तू बता नावक-ए-जानां तेरी क्या है नीयत , ख़ंजर ए यार ने तो सर की कसम खाई है
( शेर सिंह नाज़ देहलवी )
किसी के चाहने वाले बल्कि किसी के गुनाहों में शामिल होकर बराबर हिस्सेदार लोग उसके हर कदम को सही दिशा में उठाया ज़रूरी उचित बता रहे होते हैं तब इक जुमला साथ जोड़ते हैं उसकी नीयत पर शक मत करना। ज़माना बदल गया है लोग नासमझ नहीं हैं भगवा धारण करने वाले साधु योगी भोगी लोभी देखे हैं। जिनकी नीयत को आप खोटा नहीं कह सकते वो , कभी उन तथाकथित बाबाओं की चौखट पर भी माथा टेकते थे जिन्हें अदालत ने गुनहगार साबित होने के बाद हवालात की शोभा बढ़ा रहे हैं। नीयत अच्छी होती है जिनकी वे किसी को बर्बाद नहीं करते हैं खिड़कियां खोलते हैं दीवार गिराते हैं बंद कमरों में चोरी चोरी साज़िशें नहीं बुना करते हैं। जब सत्ता किसी का गला दबाती है तब चीख निकलती है और जनाब चाहते हैं आपकी सांस रुक जाए आपको उफ़ नहीं करनी चाहिए क्योंकि गला दबाने वाला खुद को चारागर बतलाता है।
सुना है सच्ची हो नीयत तो राह खुलती है , चलो सफ़र न करें कम से कम इरादा करें।
( मंज़ूर हाशमी )
गज़ब किया तेरे वादे पे ऐतबार किया , तमाम रात क़यामत का इंतज़ार किया। उसने तो क़त्ल कर के भी कभी तौबा नहीं की जिनको क़त्ल किया उनकी मौत को हादिसा बता दिया और आह भरना भी जुर्म है पर हम जाकर रोने लगे। उसकी गली में फ़रियाद करना भी बिना इजाज़त उसको मंज़ूर नहीं है। क्या हुआ क्यों हुआ कैसे हुआ जो भी हो जो नहीं होना चाहिए था हो ही गया है। अब पछताए क्या होत जब चिड़िया चुग गई खेत। मुन्ना भाई खलनायक शोले डॉन कितनी कहनियां हैं जिन्होंने मासूमियत शराफत सच्चाई ईमानदारी को दरकिनार कर गुंडागर्दी दहशत और अमीर बनने या जो भी चाहा हासिल करने को गैर कानूनी और अनुचित राह अपनाने को जायज़ है की धारणा बनाई। इसी में इक छिपा अर्थ भी था कि सच्चाई नैतिकता के साथ चलकर आपको सफलता नहीं मिल सकती। हमने सदियों जिन शिक्षाओं और मूल्यों को सर्वोच्च मान्यता दी और हासिल करने से अधिक महत्व त्याग करने को देने की बात देते रहे कुछ लोगों ने भारतीय सभ्यता और परंपराओं को निरर्थक घोषित किया और भौतिकतावादी समाज बनाने का कार्य किया। नतीजा किसी को किसी से कोई मतलब नहीं हर कोई अपना अपना स्वार्थ पूरा करना चाहता है। किसी शायर का शेर है बहुत पुराना।
आहों में है असर ना दुवाएं कबूल हैं , शायद कोई गरीब का पुर्सा नहीं रहा।
हमने ख़लनायक को नायक समझने की भूल ही नहीं की बल्कि हमने ऐसे ऐसे लोगों को अपना आदर्श बना लिया जिनकी सूरत बदलती रहती है सीरत नहीं बदलती है। सत्ता पैसे ताकत शोहरत पाने को हद दर्जे तक पागल लोगों को उनकी मीठी मीठी बातों को सुनकर हमने बिना जाने समझे बिना पहचाने मसीहा और खुदा समझ लिया है। मुझे कोई लालच नहीं कहने वाले नकली बाबा नकली माल बेचने लगे और जिनको खबर ढूंढनी थी उनको खबर से अच्छे इश्तिहार लगते हैं। अब अंधकार के पुजारी उजाला लाने की बात करते हैं अमावस की काली रात उनको पूनम की चांदनी रात से अच्छी लगती है। ऊंची अटालिकाओं की चमकती रौशनी की चकाचौंध ने इतना सितम ढाया है कि घर घर के चिरागों से रौशनी छीनकर चांद को अपने आंगन में सजाने लगे हैं। नायक और ख़लनायक दोनों समाज में मिलते हैं नायक सभी को आज़ादी और अधिकार देने की बात करते हैं मगर ख़लनायक दुनिया को अपने अधीन रखने और ज़ुल्म कर के कहकहे लगाने का मज़ा लेते हैं। आखिर में शायर बशीर बद्र जी की ग़ज़ल से कुछ शेर अर्ज़ हैं।
सशक्त और सारगर्भित आलेख।
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