सवाल भलाई का नहीं आज़ादी का है ( नज़रिया ) डॉ लोक सेतिया
हमने पढ़ना लिखना छोड़ दिया है किताबों को अलमारी में सजा रखा है वो शायरी की हो चाहे इतिहास की या फिर धर्म की। फिल्मों ने आदत बदली टीवी सीरियल ने बिगाड़ी और जब से फेसबुक व्हाट्सएप्प स्मार्ट फ़ोन हाथ लगा हमारी आदत खराब हो गई है। हमको सच झूठ लगता है और झूठ सच से महान लगता है क्योंकि समझना कोई नहीं चाहता समझाता हर कोई है जिस को तथ्य की जानकारी नहीं होती बड़े दावे से यकीन दिलाता है कि उसकी जानकारी भरोसे के काबिल है। कुछ लोग कहते हैं अमुक धार्मिक किताब में ये बात लिखी हुई है और हम मान लेते हैं जबकि ध्यान देकर समझते तो आसानी से जान सकते कि उस किताब में इस विषय की कोई बात ही नहीं है। इतना ही नहीं कुछ लोग कोई वीडियो बनाते हैं जिस में किसी कवि शायर शासक की रचना को अपनी पसंद के रचनाकार और सत्ताधारी व्यक्ति से संबंधित बताते हैं। साहित्य की चोरी जुर्म बेलज्ज़त होती है जिसका अर्थ है आपने ऐसा गुनाह किया जिस का कोई मज़ा नहीं आता। मुजरिम जुर्म करते हैं वो सब हासिल करने को जिसे वे नहीं पा सकते कोशिश और काबलियत से। नीचे आपको दो शायरों की कही बात बताई जाएगी ये समझाने को कि हमारी समस्या की बात धर्म की किताब में मिले न मिले अच्छे साहित्य में अवश्य मिल सकती है। चलो अब वास्तविक विषय पर चर्चा करते हैं।
शायद आपको भी कभी कुछ लोग मिले होंगे जिन्होंने अंग्रेजी हुकूमत की तारीफ की बात कही होगी। इंग्लैंड वाले समझते हैं उन्होंने हिंदुस्तान या अन्य देशों पर शासन करके उन सभी को न केवल आधुनिक शिक्षित समाज बनाने की पहल की थी बल्कि वहां के आम नागरिकों को सही मायने में न्याय अधिकार और आज़ादी गुलामी का अंतर समझने के काबिल बनाया था। आपको कितनी मिसाल दे सकते हैं यहां क्या क्या सौ साल पुराना बनाया हुआ है। बेशक उनकी ज़रूरत थी मगर फिर भी उन्होंने विकास की आधारशिला रखने की बात की थी। लेकिन हमारे महान नेताओं को गुलामी का विकास नहीं मंज़ूर था जिनको गुलामी पसंद थी उनको तमगे इनामात सब मिलता था। अजीब बात है फिर सत्ताधारी कहने लगे हैं उनको हमारी भलाई हम से बेहतर पता है और वे अपना आधिपत्य कायम रखने को रोज़ नियम कानून कायदे अपने मकसद को हासिल करने को बनाते रहे हैं। हमको बातों से झूठे वादों से बहलाते रहे हैं। बांटने और शासन करने की पढ़ाई हमारे देश के राजनेताओं ने विदेशी हुकूमत से विरासत में पाई है यही सबसे खेदजनक बात है कि जिनको देश के लोगों को मिलजुलकर साथ साथ रहने की बात कहनी समझनी चाहिए थी उन्होंने अपने सत्ता के लालच की खातिर देश को बांटने का काम किया है। अंग्रेज़ केवल ज़मीन को बांट गए हमारे राजनेताओं ने दिलों को बांटने और नफरत की राह चलने की राह बनाई है।
हमारा समाज कभी भी न्याय समानता और इंसानियत भाईचारे की राह नहीं चल पाया है। हम वास्तव में आज़ादी का अर्थ अपने लिए मनमानी समझते हैं अन्यथा हम न केवल किसी को अपने अधीन रखना चाहते हैं बल्कि खुद धन सत्ता या सुख सुविधा पाने को गुलामी को स्वीकार करते हैं। शायद आपको लगता है समाज बदला है और महिला पुरुष एक समान समझे जाते हैं। मगर कड़वा सच ये है कि कभी कोई पिता कभी कोई पति बनकर महिला को अपनी निर्धारित लक्ष्मण रेखा में रहने की बात उसकी भलाई बताकर कहता है। ऐसा नहीं है कि ये पुरुष ही करते हैं बहुत महिलाएं खुद अपनी ज़रूरत और खुशहाल जीवन आसानी से पाने को ये अधीनता मंज़ूर करती हैं तो कुछ महिलाएं पुरुष को अपनी कठपुतली बनाकर उंगलियों पर नचाती हैं। शायद हमारी शिक्षा हमें अच्छा इंसान बनकर रहना नहीं सिखाती है और स्कूल कॉलेज की पढ़ाई सिर्फ नौकरी पाने धन दौलत मान शोहरत हासिल करने को महत्व देने के उद्देश्य से दी जाने लगी है और हम पाने लगे हैं। वास्तव में हम आदमी नहीं कोई मशीन भी नहीं केवल किसी मशीन का इक पुर्ज़ा बन गए हैं जो अपनी नियत की जगह को छोड़कर किसी काम का नहीं रहता है।
मगर समस्या देश में कायदे कानून व्यवस्था को लेकर दिशाहीनता की है। संविधान को नेताओं ने न केवल अपनी साहूलियत से बदलने का काम किया है बल्कि संविधान की भावना को दरकिनार कर अपनी सुविधा अनुसार परिभाषित किया है। संविधान देशवासियों ने अपनाया घोषित किया गया है जनता पर ज़ोर ज़बरदस्ती थोपने की बात नहीं है इसलिए कोई नियम कोई व्यवस्था कोई कानून या संविधान में संशोधन कुछ मुट्ठी भर सत्तासीन नहीं कर सकते हैं। हर महत्वपूर्ण बदलाव पहले ईमानदारी से जनभावनाओं को जानकर उनकी अनुमति से किया जाना चाहिए। जब मनमानी से नियम लागू किये जाते हैं और विवश होकर जन सामान्य को विरोध करने उतरना पड़ता है तब बात समस्या के निदान समाधान की होनी चाहिए जो किसी सरकार के लिए बहुमत है तो सब करने की छूट मिली है का अहंकार बन जाती है। देश की जनता सांसद विधायक चुनकर जनसेवा का कर्तव्य निभाने करने का दायित्व देती है उनको गुलाम समझ मनमानी करने का हक नहीं। ये समझना ज़रूरी है कि सत्ता का अहंकार मनमानी अधिक देर तक टिकती नहीं है।
आज सभी दल वालों से सवाल पूछने हैं आपने कोई नियम कानून सत्ता पर बैठे नेताओं और अधिकारियों के खिलाफ कभी बनाया है। उनको देश के लिए कर्तव्य नहीं निभाने पर कोई सज़ा मिले , इतना ही नहीं चुनाव में अपराधी खड़े नहीं हों ये जनहित और देशहित की बात क्यों आपको पसंद नहीं है। जिस सभा में आधे लोग आपराधिक मुकदमों के मुजरिम हों उनसे न्याय के कानून बनाने की उम्मीद नहीं की जा सकती है। शर्मसार करने की बात है जो चोरी लूट बेईमानी ख़त्म करने के वादे पर चुनाव जीतकर आता है राजनैतिक दलों को विदेशी चंदा नहीं पूछने का नियम बनाता है। किसी को खबर नहीं होती कब कैसे इक परधानमंत्री कुछ घंटों में चुपचाप चुनाव आयोग से नियम बदलवा लेता है जिस में पहले उस पद पर रहते चुनावी सभाओं का खर्च उस राजनीतिक दल के खर्च में जोड़ा जाता था मगर जनाब ने अपनी चुनावी सभाओं का खर्च अपने दल नहीं सरकारी खज़ाने से करने का नियम बनाकर बोझ देश पर डालने और विपक्षी उम्मीदवार के साथ भेदभाव करने का कार्य किया है। होता ये है कि उनके बढ़ चढ़ कर झूठे दावे सरकारी इश्तिहार बनकर जनता को गुमराह करते हैं जीना पैसा भी जनता के दिए कर से मिलता है लेकिन उनके चोरी छिपे अपने फायदे को बदले नियम की बात कोई किसी को क्यों बताएगा। मैंने 2002 में लिखा था इक लेख देश का सबसे बड़ा घोटाला सरकारी विज्ञापन हैं जो आज सभी को समझ आ रहा है सारा मीडिया पक्षपाती और बिकाऊ बनकर गुमराह करता है।
शुरआत में कुछ रचनाकारों की बात दोहराने का वादा किया था। पढ़िए चुनिंदा शेर इस विषय को समझने के लिए सार्थक हैं।
खुदा हमको ऐसी खुदाई न दे ,
कि अपने सिवा कुछ दिखाई न दे।
ग़ुलामी को बरकत समझने लगें ,
असीरों ( कैदियों ) को ऐसी रिहाई न दे।
डॉ बशीर बद्र।
अपने तरीक़ मकानों से तो बाहर झांको ,
ज़िंदगी शमां लिए दर पे खड़ी है यारो।
जब भी चाहेंगे ज़माने को बदल डालेंगे ,
सिर्फ कहने के लिए बात बड़ी है यारो।
इसी सबब से हैं शायद अज़ाब जितने हैं ,
झटक के फेंक दो पल्कों पे ख़्वाब जितने हैं।
वतन से इश्क़ ग़रीबी से बैर अम्न से प्यार ,
सभी ने ओढ़ रखे हैं नक़ाब जितने हैं।
जांनिसार अख्तर।
अब किसी को भी नज़र आती नहीं कोई दरार ,
घर की हर दीवार पर चिपके हैं इतने इश्तिहार।
मैं बहुत कुछ सोचता रहता हूं पर कहता नहीं ,
बोलना भी है मना सच बोलना तो दरकिनार।
मैं बेपनाह अंधेरों को सुबह कैसे कहूं ,
मैं इन नज़ारों का अंधा तमाशबीन नहीं।
तेरी ज़ुबान है झूठी जम्हूरियत की तरह ,
तू एक ज़लील सी गाली से बेहतरीन नहीं।
दुष्यन्त कुमार।
आखिर में दो ख़ास रचनाएं हैं अल्लामा इक़बाल जी की। उनको अफ़सोस था कि ईश्वर ने उनको नयी चेतना और पत्थर से टकराने का हौंसला दिया मगर ऐसे मुल्क में पैदा किया जिनको मंज़ूर है ग़ुलामी। और दूसरी रचना अपने बेटे जावेद के नाम संदेश लंदन से उसके हाथ से लिखा पहला खत मिलने पर। काश हर वालिद अपनी संतान को ऐसा सबक सिखाता।
ग़ुलामी
इक वलवला ए ताज़ा दिया मैंने दिलों को ,
लाहौर से ता ख़ाके बुखारा ओ समरकंद।
लेकिन मुझे पैदा किया उस देश में तूने ,
जिस देश के बन्दे हैं ग़ुलामी पे रज़ामंद।
जावेद के नाम ( नज़्म )
दायरे इश्क़ में अपना मुक़ाम पैदा कर , नया ज़माना नए सुबह-शाम पैदा कर।
खुदा अगर दिले फ़ितरत शनास दे तुझको , सुकूते लाल ओ गुल से कलाम पैदा कर।
उठा न शीशा गराने फिरंग के एहसां , सिफाले-हिन्द से मीना ओ जाम पैदा कर।
मैं शाखे ताक़ हूं मेरी ग़ज़ल है मेरा समर , मिरे समर से ये मय ए लालफ़ाम पैदा कर।
मिरा तरीक़ अमीरी नहीं फ़कीरी है , ख़ुदी न बेच गरीबी में नाम पैदा कर।
बहुत शानदार कसा हुआ लेख है..👌👌👍👍
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