है ज़मीं अपनी है आस्मां अपना ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया " तनहा "
है ज़मीं अपनी है आस्मां अपना
लुट न जाये ये सारा जहां अपना ।
तोड़नी हैं हमको फिर से जंज़ीरें
आ गया फिर से इक इम्तिहां अपना ।
रहनुमाओं ने भटका दिया तो क्या
हम बना लेंगें फिर कारवां अपना ।
चाह महलों की करते नहीं लेकिन
खुद बचायेंगे छोटा मकां अपना ।
बंद पिंजरे में होंगे नहीं " तनहा "
सब समझते हैं क्या क्या गुमां अपना ।
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