अक्टूबर 03, 2020

चैन नींद करार कहां ( केबीसी की बात ) डॉ लोक सेतिया

      चैन नींद करार कहां ( केबीसी की बात ) डॉ लोक सेतिया 

   केबीसी बिगबॉस जैसे शो मेरी पसंद नहीं हैं क्योंकि मनोरंजन की आड़ में वास्तविक खेल पैसे का होता है और पैसा बनाने को समाज को गलत दिशा दिखाई जाती है। आलोचक को वास्तविकता समझने को सभी को देखना और समझना होता है। आलोचना के नाम पर आलोचना नहीं की जानी चाहिए। मगर इस में भी मेरे अंदर के लेखक को कुछ अच्छा और सार्थक मिल जाता है समझने को। कल 2 अक्टूबर के विशेष एपिसोड में जो दो लोग आये थे या बुलाये गए थे उनका ध्येय खुद अपनी खातिर धन अर्जित करना नहीं था बल्कि देश में मज़दूरों की दुर्दशा को सभी के सामने लाना था और जीतने पर धनराशि उनकी संस्था आजीविका ब्यूरो के उपयोग को देना जिसे मज़दूरों की स्वस्थ और उनके क़र्ज़ से निजात दिलाने पर खर्च किया जा सके था। राजस्थान में उदयपुर और कुछ अन्य जगह उनके कार्यालय हैं और उनकी इक हेल्पलाइन भी है जिस पर कोई मज़दूर कॉल कर सहायता हासिल कर सकता है। पिछले 15 साल से 5 लाख मज़दूरों को सहायता दे रहे हैं। संक्षेप में ही सही उन्होंने जो वास्तविक जानकारी आंकड़ों सहित उपलब्ध करवाई उस को जानकर कोई भी संवेदनशील व्यक्ति विचलित हो सकता है। आज उन सभी बातों की चर्चा करते हैं। 

       देश में करीब 14 करोड़ मज़दूर हैं जो खेती बाड़ी भवन निर्माण उद्योग घरेलू या अन्य कारोबार करने वाले अमीर मालिकों के लिए काम करते हैं। सबसे पहली बात आजीविका के कृष्णावतार शर्मा जी और राजीव खंडेलवाल जी ने लॉक डाउन में मज़दूरों के अपने रहने काम करने की जगह से बाहर निकलने की समस्या को लेकर समझाया। पचास पचास लोग दो पारी में काम करते थे उनके रहने को काम करने को इक हॉल जितनी जगह होती है आधे लोग काम करते थे आधे सोते आराम करते खाना उसी जगह बनाते और उनके लिए एक शौचालय था। ऐसे में काम बंद हुआ तो सभी सौ लोग इक साथ रहना कठिन था राशन क्या पीने को पानी भी नहीं था ऐसे में ज़िंदा रहने को बाहर निकले तो उनको अपराधी बताया गया उनसे पुलिस सरकारी लोग कड़ाई से पेश आते मानवता का दर्द नहीं समझते संवेदनाओं से कोई सरोकार नहीं। 

   बंधुआ मज़दूरी और शोषण की बात आम है साथ में सरकारी आयोग के निर्धारित दैनिक मज़दूरी तीन सौ से अधिक को भी राज्य लागू नहीं करते और अधिकांश दो सौ से कम दैनिक मज़दूरी मिलती है। जिस बात से सबसे अधिक चिंता और हैरानी हुई वो ये है कि जो लोग पत्थर को काटकर मूर्तियां या कोई बुत अदि बनाते हैं उनकी काटने की मशीन से उड़ने वाली धूल से उनको पांच साल में ही कोई रोग जिसका ईलाज नहीं है हो जाता है इतना ही नहीं ऐसे मज़दूर 15 साल काम करने के बाद मरने को विवश हैं। हे भगवान आपके मंदिर बनाने की खातिर कितने इंसान अपनी ज़िंदगी से खिलवाड़ होने देने को विवश हैं। उन्होंने बताया कि अन्य देशों में ये काम करने को मशीन को आधुनिक बनाते हैं ताकि धूल नहीं उड़े मज़दूर की आंखें और सांस में जाने का सवाल ही नहीं बचता है। ऐसा करने पर दस बीस हज़ार रूपये खर्च होंगे जो किसी इंसान की ज़िंदगी की कीमत से अधिक हर्गिज़ नहीं हैं। देश की दस फीसदी आबादी की सुरक्षा और उनके अधिकार तो क्या उनको समानता और आदर से रहने को भी उचित वातावरण नहीं है। अमिताभ बच्चन जी ने कहा आज उनको नींद नहीं आने वाली है। मुझे नहीं मालूम उनको नींद आई या फिर नींद की कोई दवा खानी पड़ी मगर मुझे नींद की दवाई खाकर भी चैन नहीं मिला करार नहीं दिल को आएगा लिखने के बाद भी। धर्म की बात करने वाले मंदिर बनवाते समय शायद मानवता की इंसान की ज़िंदगी की अहमियत समझते ही नहीं अन्यथा जिस मंदिर की मूर्तियां तराशने में मज़दूर की ऐसी दशा होती होगी वहां ईश्वर निवास करता होगा कभी सोचा ही नहीं था।

    अमिताभ बच्चन जी अदाकार हैं अभिनय करते हैं किरदार निभाते हैं उन डायलॉग से कथा से विचलित नहीं होते। उनका गांधी जी की विचारधारा को आज भी महत्वपूर्ण कहने से उस विचारधारा को अपनाना नहीं होता है। उनकी सोशल मीडिया की दिखावे की ज़िंदगी वास्तविक से अलग और विपरीत होती है। हाथी के दांत खाने को अलग दिखाने को अलग होते हैं अन्यथा भला इतना नाम धन दौलत शोहरत पाने के बावजूद भी कौन बनेगा करोड़पति खेल का हिस्सा केवल और अधिक पैसे की हवस की खातिर नहीं बनते क्योंकि इतना तो उनको पता है ये कोई ज्ञान की बात नहीं है कमाई करने को टीवी चैनल और आयोजक लोगों को अमीर बनाने के कल्याण करने वाला मुखौटा लगाकर अपना अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं उल्लू बनाते हैं। ये कभी किसी अच्छे उद्देश्य की खातिर संलग्न लोगों को बुलाना भी उनकी रणनीति है ऊंठ के मुंह में जीरे की तरह भलाई थोड़ी साथ साथ खाने को मलाई उनके हिस्से आती है। चिंता इसकी भी है कि उनकी ये असलियत कभी कोई सामने नहीं लाता है। थाली में छेद का इल्ज़ाम लगेगा टीवी मीडिया सभी इक थैली के चट्टे बट्टे हैं।

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