अगस्त 22, 2020

काला धन से कोरोना तक ( व्यंग्य-कथा ) डॉ लोक सेतिया

   काला धन से कोरोना तक ( व्यंग्य-कथा ) डॉ लोक सेतिया 

        बात दो राक्षसों की कहानी की है कहानी की शुरुआत कुछ साल पहले हुई। हर तरफ काला धन की चर्चा थी ये कोई दैत्य था जो देवताओं की नगरी में भेस बदल कर निवास करता था। कोई उसकी सही पहचान नहीं बता सकता था मगर देश की जनता को उस नाम के राक्षस का डर दिखला कर राजनीति की पायदान पर कितने लोग चढ़ते रहते थे। ऐसे में उसने आकर काला धन को पकड़ने और उसकी बिरयानी बनाकर हर देशवासी को बांटने की घोषणा कर दी थी। सब के मुंह में पानी आ गया था बात लाखों रूपये बैंक खाते में जमा होने की जो थी। काला धन नाम के राक्षस को मिटाने को उसने बहुत कुछ किया और इस तरह से किया कि लोग बस करो बस करो कहने लगे। मगर उसने ठानी थी काला धन को सफ़ेद बनाने की और अपनी तिजोरी भरने की। खेल खेलता रहा खेलने के नियम अपनी साहूलियत से बदलते रहे लेकिन काला धन किसी को मिला नहीं बस उसने काला धन नाम के दैत्य को अपने बस में कर अपनी कैद में बंद कर लिया और उसका रंग रूप बदल कर खूबसूरत बना लिया।

         उसको अपने मन की बात अच्छी लगती है मनमानी करता है। खेलना उसको पसंद है और उसकी मर्ज़ी है चाहे जिस से खेले दिल से भावनाओं से या नये नये ढंग से अपने खेल अपने मैदान अपने नियम बना कर। उसके पास शोले फिल्म वाला सिक्का है जिस में दोनों तरफ उसकी जीत तय है जो वो मांगता है दोनों तरफ वही अंकित है अभी तक कोई समझ नहीं पाया हर बार हर जगह उसकी जीत का अर्थ क्या है। अपने काला धन की तिजोरी से उसने विदेश से इक नया खिलौना मंगवा लिया कोरोना नाम का दैत्य की शक़्ल वाला। खबर सभी को पता चली और लोग भयभीत होने लगे इस आधुनिक राक्षस के नाम से। मगर उसने सबको कह दिया मुझे इस को बस में करना आता है चिंता मत करो जीत मेरी पक्की है। खेल शुरू हो गया खिलौना उसके हाथ नहीं आता था बस उसने सोच लिया ये कोरोना नाम का खिलौना क्या है मुझसे कभी कोई किसी खेल में जीता है न जीतने दूंगा किसी को। साम दाम दंड भेद हर नीति अपनाना आता है मगर मामला काला धन जैसा साफ नहीं था कोरोना को होना है नहीं होना है कुछ समझ नहीं आया मगर उसने भी खेल को समझा न सामने वाले खिलाड़ी को हराने का दम भरने लगे।

  कोरोना हंसता उसकी नासमझी की बातों पर , ताली बजाओ थाली बजाओ अंधेरा करने के बाद टोर्च जलाओ जैसे काम देख उसको लगता मनसिक संतुलन बिगड़ गया है। कोरोना की चाल उसको समझ नहीं आती थी कभी सबको घर में बंद कभी खुद और ख़ास लोगों को सब करने की आज़ादी कभी मंदिर मस्जिद गिरिजाघर गुरूद्वारे बंद कभी मंदिर में पूजा पाठ कभी इधर कभी उधर। फिर सब बंद से सब खोलने तक की नादानी की की कसरत और सत्ता का गंदा खेल खेलने की आज़ादी। कोरोना को मनाने की कोशिश करते हुई समझौता वार्ता में उसको दिन भर की छूट देने की बात मगर वो भी ज़िद पर अड़ा रहा कोई बात मंज़ूर नहीं की। सप्ताह में इक दिन की दो दिन की छुट्टी भी कोरोना को स्वीकार नहीं हुई। उसने कितनी बार टीवी पर जनता से बात की और समझाया कि कोरोना को अवसर समझना चाहिए हमको इस से अपनी अर्थव्यवस्था को ठीक करने को उपयोग करना होगा। बस किसी ढंग से कोरोना अपनी जकड़ पकड़ में आये तो सही फिर उसको दुनिया भर को महंगे ऊंचे दाम पर बेचकर मालामाल होना तय है।

   देश नहीं बिकने देना की बात कहते कहते देश में जो भी नज़र आया उसको बेच दिया ये उसकी मॉडलिंग का करिश्मा ही है जो चाय से लेकर कुछ भी बेच सकता है। खरीदार मिलना चाहिए हर चीज़ बिकती है नेता क्या अभिनेता क्या अदालत क्या सियासत क्या ईबादत क्या तिजारत क्या कोरोना क्या हिफाज़त क्या। गांधी जी ने सत्य पर शोध किया जनाब ने झूठ पर शोध करने का कीर्तिमान स्थापित किया है। काला धन वाला राक्षस और कोरोना वाला महाराक्षस दोनों की नस्ल झूठ वाली है उनकी असलियत कोई नहीं जान पाया कोई जानना भी नहीं चाहता है।  

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