सितंबर 01, 2020

ये आईने तोड़ के फैंक दो ( सच के क़ातिल ) डॉ लोक सेतिया

   ये आईने तोड़ के फैंक दो ( सच के क़ातिल ) डॉ लोक सेतिया 

    सच वो है जो भगवान से भी सवाल करे विधाता ये दुनिया को कैसा बनाया किसी को सभी कुछ किसी को कुछ भी नहीं। हम जिस को देखते हैं वो पत्थर का भगवान अमीरों का लगता है खुद सबसे बड़े आलीशान भवन में हीरे मोती सोना चांदी लिबास भी चमकदार और पूजा अर्चना की गूंज में स्वादिष्ट पकवान। गरीब उसके पास जाकर भीख की तरह दया करने को कह सकता है अपने अधिकार की बात नहीं कर सकता अन्यथा पूछता आपने जन्म दिया तो ज़िंदगी और ज़िंदा रहने का हक भी देता। मगर उस भगवान की बेबसी है वो अपनी वास्तविकता खुद ब्यान भी नहीं कर सकता है। कुछ लोग खुद ही भगवान बन बैठे हैं आज ऐसे ही तमाम लोगों की बात कहते हैं खरी खरी कहने की ज़रूरत है। अन्यथा दुष्यन्त कुमार की तरह कहना होगा " तेरा निज़ाम है सिल दे ज़ुबान ए शायर को , ये एहतियात ज़रूरी है इस बहर के लिए "। 

   ये सच के झंडाबरदार बने फिरते हैं बेचते हैं अपना झूठ सच साबित कर ऊंचे दामों पर और खुद पर कोई अंकुश नैतिकता का नहीं मानते हैं। ख़ास लोग जब चाहते हैं उनको बुला सकते हैं और उनकी कही हर बात इनको गीता कुरान बाईबल लगती है उनको बात जैसे जब उनकी मर्ज़ी ये दर्शकों को सुनवाते ही नहीं मनवाते भी हैं। जिसकी खाते हैं उसकी बजाते हैं उसी की महिमा बखान कर आगे ऊपर बढ़ते जाते हैं झूठ के परचम को सच बताते हैं लहराते हैं। दर्द की मत करना बात सबसे बेदर्द और बेदिल बेज़मीर यही नज़र आते हैं। मगर आम जनता के हालात इनको समझ नहीं आते हैं उनकी घनी अंधेरी रात को ये चांदनी बताते हैं। कभी किसी को गुनहगार जब बताते हैं उस से पूछो कितना ज़ुल्म ढाते हैं जाने कहां कहां से मनगढ़ंत सबूत ले आते हैं और खुद वकील गवाह न्यायधीश सब बनकर अपनी अदालत में मनमर्ज़ी का फैसला सुनाते हैं। ये ज़हर देते हैं खुद को चारागर बतलाते हैं। ये खुद पागल हैं इनको पीलिया हुआ है पागलपन करते जाते हैं खबर ढूंढते नहीं हैं खबर बनाते हैं बेखबर की खबर को अखबर बनाते हैं। हाथ जोड़कर इनसे लोग जान अपनी बचाते हैं पर जान की कीमत इनको चुकाते हैं तभी बच पाते हैं। इक ग़ज़ल उनकी बातों की सुनाते हैं उसके बाद कोई और दरवाज़ा खटखटाते हैं। 

ग़ज़ल - डॉ लोक सेतिया "तनहा"

इक आईना उनको भी हम दे आये,
हम लोगों की जो तस्वीर बनाते हैं।
 
बदकिस्मत होते हैं हकीकत में वो लोग,
कहते हैं जो हम तकदीर बनाते हैं।

सबसे बड़े मुफलिस होते हैं लोग वही,
ईमान बेच कर जो जागीर बनाते हैं।

देख तो लेते हैं लेकिन अंधों की तरह,
इक तिनके को वो शमशीर बनाते हैं।

कातिल भी हो जाये बरी , वो इस खातिर,
बढ़कर एक से एक नजीर बनाते हैं।

मुफ्त हुए बदनाम वो कैसो लैला भी,
रांझे फिर हर मोड़ पे हीर बनाते हैं।


        चलो अगली चौखट पर सर को झुकाते हैं अपने पर हुए ज़ुल्म की दास्तां उनको भी सुनाते हैं जिनके पर इंसाफ़ का तराज़ू है न्याय का मंदिर कहलाते हैं। कोई तोला है कोई माशा है उनका भी अजब सा तमाशा है। वो जो कहते हैं यकीन से कहते हैं समझते हैं जैसे आसमान पर रहते हैं आम लोग उनको दिखाई नहीं देते हैं। खुदा हैं उनकी खुदाई है हां मगर सत्ता पर बैठा जो अपना भाई है कुछ मत पूछो वो करिश्माई है बस उसी ने सभी को राह दिखाई है। चोर चोर मौसेरा भाई है दौलत मिल बांटकर सभी ने खाई है ये खज़ाने की इक खुदाई है लूट है देशसेवा कहलाई है। कनून क्या है संविधान क्या है इधर कुंवां उधर खाई है माखनचोर माखन चुराता है देखती रहती उसकी माई है ये दूध है वो मलाई है। यहां बिकता है ज़मीर भी सर झुकाता है राजा फकीर भी जिसकी फूटी हुई है तकदीर भी उसको मिलती नहीं नज़ीर भी। बस उनको कुछ कहना भी गुनाह होता है सच की बात है फ़नाह होता है। इक ग़ज़ल उनको भी कहती है जनता ज़ुल्म सहती कुछ नहीं कहती है ख़ामोशी बोलती नहीं फिर भी कहती है। 

ग़ज़ल - डॉ लोक सेतिया "तनहा" 

फैसले तब सही नहीं होते ,
बेखता जब बरी नहीं होते।

जो नज़र आते हैं सबूत हमें ,
दर हकीकत वही नहीं होते।

गुज़रे जिन मंज़रों से हम अक्सर ,
सबके उन जैसे ही नहीं होते।

क्या किया और क्यों किया हमने ,
क्या गलत हम कभी नहीं होते।

हमको कोई नहीं है ग़म  इसका ,
कह के सच हम दुखी नहीं होते।

जो न इंसाफ दे सकें हमको ,
पंच वो पंच ही नहीं होते।

सोचना जब कभी लिखो " तनहा " ,
फैसले आखिरी नहीं होते। 

         इक और है जो खुद हमने बनाया है इक निज़ाम खुद अपना अपनाया है वो कुछ नहीं बस हमारा साया है मगर ये साया शाम का बढ़ता साया है इंसान से लंबा उसका साया है। सांसद विधायक हमने बनाया है हमको डराता है बहुत दूर बच के रहते हैं चेहरा नहीं नक़ाब लगाया है देशभक्ति का गीत गाकर जब सुनाया है मत कहो क्या है क्या बताया है। उनकी हर बात बात होती है दिन उनके उनकी रात होती है उनसे भला मुलाक़ात होती है कोई श्मशान है कोई बरात होती है सूखा मचाती हुई बरसात होती है। बात को मुख़्तसर बनाते हैं फिर ग़ज़ल इक उनको लेकर पढ़ते सुनते सुनाते हैं। सारे जहां से अच्छा हिन्दोस्तां हमारा , क्या तराना है मिलकर गाते हैं। 

ग़ज़ल - डॉ लोक सेतिया "तनहा"

 
सरकार है  , बेकार है , लाचार है ,
सुनती नहीं जनता की हाहाकार है।

फुर्सत नहीं समझें हमारी बात को ,
कहने को पर उनका खुला दरबार है।

रहजन बना बैठा है रहबर आजकल ,
सब की दवा करता जो खुद बीमार है।

जो कुछ नहीं देते कभी हैं देश को ,
अपने लिए सब कुछ उन्हें दरकार है।

इंसानियत की बात करना छोड़ दो ,
महंगा बड़ा सत्ता से करना प्यार है।

हैवानियत को ख़त्म करना आज है ,
इस बात से क्या आपको इनकार है।

ईमान बेचा जा रहा कैसे यहां ,
देखो लगा कैसा यहां बाज़ार है।

है पास फिर भी दूर रहता है सदा ,
मुझको मिला ऐसा मेरा दिलदार है।

अपना नहीं था ,कौन था देखा जिसे ,
"तनहा" यहां अब कौन किसका यार है। 

       झूठ ही झूठ है सच कोई नहीं देखता न दिखलाता है। इन सभी आईनों को तोड़ कर फैंक दो इन में कुछ भी दिखाई नहीं देता है इन अंधों को आईना समझ बैठे हैं लोग। चुप रहना ज़ालिम को मसीहा कहना ज़ुल्म सहकर यही किया है देश की जनता ने। अपने अधिकार मांगने से नहीं मिलते हैं छीनने पड़ते हैं सर झुकाकर नहीं उठाकर जीना होगा तभी आज़ादी का कोई मतलब होगा। झूठ को जो सच कहते हैं उनको बताना होगा हम जानते हैं सच क्या है समझाना होगा। हौंसलों को अपने फिर से आज़माना होगा झुकना नहीं टकराना होगा अपने स्वाभिमान को जगाना होगा। आस्मां को ज़मीं पर लाना होगा इक और ग़ज़ल है अपना यही तराना होगा।

   ग़ज़ल - डॉ लोक सेतिया "तनहा"

हम तो जियेंगे शान से,
गर्दन झुकाये से नहीं।

कैसे कहें सच झूठ को ,
हम ये गज़ब करते नहीं।

दावे तेरे थोथे हैं सब ,
लोग अब यकीं करते नहीं।

राहों में तेरी बेवफा,
अब हम कदम धरते नहीं।

हम तो चलाते हैं कलम ,
शमशीर से डरते नहीं।

कहते हैं जो इक बार हम ,
उस बात से फिरते नहीं।

माना मुनासिब है मगर ,
फरियाद हम करते नहीं। 

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