जून 21, 2020

बौछार सावन की लोग कागज़ के ( अजब-ग़ज़ब ) डॉ लोक सेतिया

 बौछार सावन की लोग कागज़ के ( अजब-ग़ज़ब ) डॉ लोक सेतिया 

निकले थे ज़िंदगी की तलाश में आ पहुंचे हैं मौत के करीब। धन दौलत महल चौबारे रौशनियां और शोर कहकहों का अब लगता है ये सभी कागज़ के फूल जैसे हैं बारिश की इक बौछार इनका वजूद मिटा सकती है। खुश रहने को दिल को क्या क्या झूठा तसल्ली देते रहे क्या क्या नहीं है पास क्या क्या नहीं मिलता है दुनिया के बाज़ार में खरीदार हो बिकता है इंसान भी ईमान भी। तराशा है अपने हाथ से अपना भगवान भी और खुद ही अपने भीतर छुपाए हुए हैं कोई शैतान भी। बदन समझ बैठे जिसको लिबास है जैसे किसी मिट्टी की दीवार पर सीमेंट का पलस्तर किया हुआ देखने को मज़बूत मगर खोखलापन बेताब बाहर निकलने को। अपने को तंदुरस्त रखने को क्या क्या नहीं किया चिंता मिटी नहीं बीमा भी करवा कर भी , क्या ग़ज़ब की सलाह देते हैं महंगा नहीं है अब तो करवा लो आप मर गए तो क्या होगा आपके अपनों का। आज की छोड़ अनदेखे कल की व्यर्थ की चिंता जैसे इंसान हो नहीं हो पैसा होना चाहिए आपके परिवार को बच्चों को आपकी नहीं पैसों की ज़रूरत होगी ज़िंदा हैं तो जैसे भी जितना भी जमा करते रहो और मर जाना मगर छोड़ जाना खूब जीने का सामान किस किस के लिए। कोई नहीं समझाता अपने बच्चों को परिवार को ये भी सिखाना चाहिए कि हालात बदलते रहते हैं हौसला रखना चाहिए और ज़िंदगी की मुश्किलों से घबराना नहीं उनसे टकराना चाहिए। 

नतीजा अभी भी नहीं समझे हैं। पैसा है आधुनिक साज़ो-सामान है घर कार सुख सुविधा और सेहत बनाने को सैर खाना पीना योग और क्या क्या टॉनिक और जिम जाना मौज मस्ती ठहाके लगाना इसको सभी कुछ मान लिया है। आत्मा मन क्या है कुछ भी नहीं बेकार की चीज़ें हैं उनको कूड़ेदान में फेंक दिया जाने कब अब याद भी नहीं है। लिबास को महत्व दिया वास्तविक इंसान को मन विचार को जाना नहीं समझा नहीं देखा नहीं। आपको सारी ताकत शोहरत किसी तिनके की तरह हवा चलते ही बिखर जाती है नज़र नहीं आता अपना निशां तक दूर दूर तक। चमकीले रंग बिरंगे पैकिंग में गत्ते के डिब्बे जैसी हालत है हमारी दिखाई देते हैं सुंदर बाहर से अंदर कितना मैल भरा हुआ है खोलते हैं कोई उपहार तो बेकार कितना फैंकते हैं कूड़े में। अपने भीतर से भी वास्तविक वस्तु मन आत्मा को रख बाकी गंदगी को निकालते और फैंकते किसी कूड़ेदान में। अस्पताल दवाओं का भंडार और डॉक्टर जीवन रक्षक उपकरण सभी हैं मगर मौत कब कैसे आती है कुछ भी काम नहीं आता और मौत के नाम से घबराते हैं भयभीत हैं क्योंकि अंदर से खोखले हैं अन्यथा समझते कि ज़िंदा रहना क्या है ध्यान देते मौत से डर कर बार बार नहीं मरते। अपने लिए जीना ज़िंदगी नहीं होता है ज़िंदगी वही है जो औरों की खातिर जी जाये किसी के काम आये किसी को ख़ुशी देने किसी का दर्द बांटने का नाम है वास्तविक जीना सार्थक ढंग से। झूठ का तिलक लगाकर लोभ अहंकार को हथियार बनाकर खुद अपने आप पर मोहित होना यही सबसे बड़ा रोग है जो हमने पाला हुआ है। अपने मन की आत्मा की खिड़कियों को बंद रखते हैं जैसे बारिश की बौछार से अपने कमरे की सजावट को बचाने को घुटन में रहना विवशता है।
 

 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें