मई 09, 2020

पुस्तक पाठक पब्लिशर और दर्शक ( विमर्श ) डॉ लोक सेतिया

  पुस्तक पाठक पब्लिशर और दर्शक ( विमर्श ) डॉ लोक सेतिया 

    खाली बैठे लिखने वाले अपनी ही दुनिया में खो जाते हैं। लेखक जी पचास किताबें छपवा चुके हैं मगर जो शोहरत और नाम उनको लगता है मिलना चाहिए नसीब नहीं हुआ। अचानक विचार आया जैसी महान कथाओं की कहानी होती है उस तरह का कोई उपन्यास लिखा जाये। अब कोई जमापूंजी बची नहीं खुद अपनी जेब से पैसे देकर कुछ भी लिख छपवाने को इसलिए पब्लिशर से मिलकर चर्चा की पुरातन कथाओं का आधुनिक स्वरूप देकर कहानी पर उपन्यास लिखने को लेकर। शुरआत में ही जब असंभव घटना को आधार बनाया साफ लगने लगा तो पब्लिशर को कहना ही पड़ा भाई ये किस युग की बात कर रहे हो। लेखक ने याद दिलाया कि सदियों से लोग ऐसी कथाओं को सुनते हैं और भरोसा भी करते हैं जो भी सुनाया जाता है वास्तविक है। पब्लिशर बोले भाई ये इसलिए कि जब उनको लिखा और सुनाया जाना शुरू हुआ होगा तब लोग अशिक्षित और आस्था के नाम पर विश्वास से अधिक भय के कारण खामोश रहते थे। उस युग में अगर कोई सोच भी रहा होगा तो भी खामोश रहना उचित था क्योंकि शासन उन्हीं के इशारे पर चलता था ऐसे में सवाल करना जान जोख़िम में डालना था। आज कोई ऐसी किताब छापेगा तो कोई खरीद कर पढ़ेगा ही नहीं बल्कि जिनको समीक्षा के लिए भेजी वही उपहास और अपमान करेंगे ये कहकर कि आधुनिक समय में ऐसी अविश्वसनीय बातें लिखना छापना अर्थात सोच समझ को ताक पर रखना है। कोई भी जाना माना लिखने वाला इस जैसी कहानी को पढ़ कर समीक्षा लिखना नहीं चाहेगा। 

    लेखक जी बोले अपने कभी पढ़ा है उन पुरातन किताबों को , नहीं पढ़ा होगा मगर आज भी उनके लिखने वाले अमर हैं उनकी ऐसी ही कृतियों के कारण। अभी भी उन पर सीरियल फिल्म बनती हैं। चलो इसे छोड़ो आपने बाहुबली दबंग टाइगर ज़िंदा है रेस कोई मिल गया कृश पीके धूम दौड़ गॉड तुसी ग्रेट हो कितनी ही फ़िल्में हैं जो सफल ही नहीं कीर्तिमान स्थापित करती रही हैं क्या उनकी कहानी घटनाएं संभव हैं। अब पब्लिशर को हंसी आई और बोले भाई उनके दर्शक कोई कहानी संदेश समझने नहीं जाते हैं। शायद कुछ अपनी ज़िंदगी की उलझनों कुंठाओं हताशा खीझ से निराश इक झूठी उम्मीद संजोते हैं अपने पसंद के अभिनेता नायक की छवि को वास्तविक मान बैठते हैं कि उनके लिए भी कोई ऐसा हो सकता है। मगर ये जो सम्मोहन होता है ये कभी भी स्थाई नहीं होता है कुछ घंटे बाद हॉल से बाहर निकलते अपनी असली दुनिया दिखाई देती है जिस में कोई भी किसी की सहायता या साथ खराब समय में नहीं देता निस्वार्थ भाव से। 

   लोग छले जाते हैं अभी भी किसी के सुनहरे ख्वाब दिखलाने से और तब इक दिन वोट देकर आशा भी करते हैं कि शायद ये नेता ये सरकार पहले जैसी नहीं होगी और कुछ बदलेगा। मगर कुछ दिन में सपने टूट जाते हैं ऐसे में किसी लेखक की किताब जो केवल कल्पना ही नहीं ऐसे किरदार को दिखाती हो जो कभी नहीं हुए अभी नहीं नज़र आते और कभी भी होने की उम्मीद रखना भी पागलपन लगता है। लिखने वाले हैं आपको ऐसा हर्गिज़ नहीं करना चाहिए जैसा पुरातन महान किताबों में अन्याय अत्याचार मिटाने को कोई मसीहा आने का झूठा दिलासा दिलाया गया है। मैंने सभी को नहीं पढ़ा मगर जिनको भी जाना है समझा है साफ कहूं तो लिखने वाले की सोच समझ पर हैरानी होती है। उनकी कथाओं के किरदार कितने खोखले हैं जो हमेशा अधर्म अन्याय पाप को खामोश होकर बढ़ावा देने के बाद इंतज़ार करते हैं कब अपनी कायरता को विवशता या कोई और नाम दे सकें। 

   शायद दर्शक अपने मनोरंजन को महत्व देते समय भूल जाते हैं कि ख़लनायक की बातों पर तालियां पीटना समाज को भटकाना है , जिसे आप कहते हैं सदी का महनायक है उसकी फिल्मों को देख कर लोग हिंसा और गुंडागर्दी का सबक भले सीखते रहे हैं मगर उनकी गुंडागर्दी कोई असहाय की सहायता को नहीं नज़र आई बल्कि जब खुले आम कोई बेहद आपत्तिजनक आचरण करता है तब सभी तमाशाई बने होते हैं। क्योंकि बुराई का असर जल्दी होता है और बुराई करने वाले को अच्छा लगता है कोई उस से डरे , अच्छा बनना और भलाई की बात कोई नहीं सीखता है। पहले पुरानी फ़िल्में कहानियां संवेदना पैदा करती थी आज की फ़िल्में कहानियां दर्शक को समाज को संवेदनाशून्य बनाने का काम करती हैं। कोई भी अब शराफत के नाम पर अपनी जान को आफत में नहीं लेता है। आपको फिर भी नाम शोहरत की चाहत है तो आजकल ऐसे किरदार की बात लिखो जो आचरण रावण और कंस जैसा करता है मगर कहलाता ऱाम और कृष्ण है। वास्तविक नायक अब कहीं नहीं हैं ख़लनायक अब नायक घोषित किये जा चुके हैं। आपकी किताब भी बिकती है ऐसे हथकंडे अपनाने से मगर पढ़ी जाती है समझी जाती है ये बताना मुमकिन नहीं है। महंगी कीमत की किताबें सरकारी दफ्तरों और सभ्य समझे जाने वालों की अलमारी में रखी रहती हैं बिना खोले ही किसी अपराधी की तरह कैद में। 

 

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