चलो महफ़िल सजाओ शमां जलाओ ( आलेख ) डॉ लोक सेतिया
नहीं ये सन्नाटा जाने कब से पसरा हुआ है। कहने को हम भीड़ में रहते थे मगर साथ कोई नहीं होता था। कोई सफर कोई मंज़िल थी कुछ मकसद हुआ करता था रास्ता तय किया बिछुड़ गए तो इस तरह जैसे किसी का कोई वजूद ही नहीं था। समझा ही नहीं जीना किसको कहते हैं , सोचता तो हमेशा हमेशा से था कल इक दोस्त ने वीडियो भेजा तो अपनी ही भूली कहानी लगी। ज़िंदगी गुज़रती रही और हम सोचते ही रह गए अभी जीना शुरू करना है। कहीं आपको वो माहौल नहीं मिलेगा जिस में आप खुलकर जीना चाहते हैं जिस दिन अपने सोच लिया अपनी महफ़िल खुद सजा लोगे। मस्ती में कुछ पल जी लोगे बिता लोगे ज़िंदगी का असली मज़ा लोगे। मुझे कहनी है इक ग़ज़ल साथ साथ गुनगुना लोगे।
फिर कोई कारवां बनायें हम ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"
फिर कोई कारवां बनायें हमया कोई बज़्म ही सजायें हम।
छेड़ने को नई सी धुन कोई
साज़ पर उंगलियां चलायें हम।
आमदो रफ्त होगी लोगों की
आओ इक रास्ता बनायें हम।
ये जो पत्थर बरस गये इतने
क्यों न मिल कर इन्हें हटायें हम।
है अगर मोतिओं की हमको तलाश
गहरे सागर में डूब जायें हम।
दर बदर करके दिल से शैतां को
इस मकां में खुदा बसायें हम।
हुस्न में कम नहीं हैं कांटे भी
कैक्टस सहन में सजायें हम।
हम जहाँ से चले वहीँ पहुंचे
अपनी मंजिल यहीं बनायें हम।
आप भी हम भी जाने दुनिया भर में कितने लोगों से मिलते रहे जान पहचान हुई मगर शायद कभी ही ऐसा हुआ होगा जब किसी से मिलकर लगा हो कि काश ये जो भी शख़्स है रोज़ मिलता साथ साथ बात करते वक़्त ऐसे गुज़र जाता जैसे घंटों बाद भी महसूस हो यार अभी नहीं अभी तो कुछ कहा सुना नहीं। मगर अक्सर हमने ऐसे लोगों को खो दिया है उनकी मीठी यादें रहती हैं दिल की गहराई में। वो बचपन वो स्कूल कॉलेज के दिन कोई मकसद नहीं हुआ करता था कोई मिला साथ चलने को कहा चल पड़े फिर राह में और लोग मिलते गए और हम मिलकर बिना कोई तय किये बस ख़ुशी मस्ती से कुछ पल साथ रहे। अब तो जब मिलते हैं लोग देखते हैं आपको आपका लिबास आपका रुतबा आपका महत्व कोई मतलब हासिल होगा या नहीं जाने कितने सवाल दिल में होते हैं दिल से दिल की बात होती नहीं कभी मतलब की बात करते हैं। कोई किसी का अपना नहीं होता है बस दिखावे को नाते रिश्ते कोई हिसाब नहीं। जब कोई दुःख परेशानी कोई नज़र नहीं आता और ख़ुशी हो तो कोई नहीं जिसको बताएं और जो ख़ुशी से खुश होकर ख़ुशी को और भी बढ़ा सकता हो।
कितनी भीड़ होती है घर से बाहर बाज़ार में पीवीआर में होटल में पार्क में कभी किसी शानदार जगह जाते हैं शाम को बिताने को भी। मगर रौनक रौशनियों में भी भीतर इक अंधकार इक खालीपन इक वीराना इक अकेले होने का एहसास सभी चेहरे अनजाने अजनबी लगते हैं। घंटा दो नकली दिखावे की ख़ुशी के बाद वापस लौट आते हैं भीतर वही सूनापन लेकर। सोचते हैं भला अब गांव शहर छोड़ यहां कौन मिलेगा कोई आपस में खुलकर बात नहीं करता लगता है हर निगाह में इक शक का पर्दा है। मैंने कितनी बार राह चलते किसी से जान पहचान की और बातें हुई तो कभी लगता है लोग सोचते हैं कोई छिपा मकसद तो नहीं क्यों अपनी बात बताता है हमसे पूछता है। आदत बना ली है भरोसा नहीं करते आसानी से , इक दोस्त की बात याद आई है आहूजा नाम है आजकल नहीं मिले कोई बात नहीं हुई। साथ साथ हॉस्टल में रहे कुछ खट्टे मीठे अनुभव हुए , बिल्कुल अलग अलग सवभाव सोच थी हम दोनों की। मैंने उसको कभी कुछ भी समझाने की कोशिश नहीं की ठीक है जैसा भी है। उसका कहना होता था सेतिया तुम हर किसी को अच्छा समझते हो तभी जब कोई खराब साबित होता है तुम निराश हो जाते हो , मगर मुझे देखो मैं किसी पर भी भरोसा नहीं करता और कोई मुझे धोखा नहीं दे सकता है। उसका कहना था सबको खराब समझो जब तक साबित नहीं हो जाये कि वो अच्छा है लेकिन मेरी आदत अभी भी वही है सभी को अच्छा समझता हूं जब तक लोग खुद अपने को खराब नहीं साबित करते , और संबंध नहीं रहने पर भी ये याद रखता हूं कभी हम दोस्त थे कुछ तो अच्छाई मिली थी उस में भी।
मैंने दोस्त बनाना महफ़िल सजाना कभी नहीं छोड़ा अभी भी कोई महफ़िल नहीं है तब भी इक महफ़िल होती है मन में ख्यालों में बनानी है। हां जाने क्यों मुझे भीड़ से घबराहट होती है महफ़िल हो दो चार दस लोग जो मिल बैठें बिना कोई मतलब लिए। चर्चा हो कुछ भी जो भी कोई कहना चाहे मगर अब लोग लिखते हैं सोशल मिडिया पर खुद ही पढ़ते हैं न किसी को समझना न किसी को समझाना। नहीं किसी काम की नहीं ऐसी भीड़ भरी महफ़िल इस से अच्छा है खुद अपने साथ रहना अकेले भी मगर तन्हा नहीं अपने ही संग। खुद से अपनी बात कहना खुद को समझना और ज़िंदगी को जीना कैसे है विचार करना। दुनिया में लोग हैं अच्छे सच्चे भले भी तमाम तरह के मगर आपको ढूंढना होगा मेरी तरह कोई तो होगा इक दोस्त ही सही बहुत होता है ज़िंदगी की खुशियों को मिलकर बांटने दुःख दर्द परेशानियां दूर करने को। कभी चाहो तो मेरे पास आओ निराश नहीं होने दूंगा किसी को। इंतज़ार है राह देखता रहता हूं और घर का दरवाज़ा खुला रहता है। कोई है जो कह रहा है बुला रहे हो खुद चले आओ , आप कहेंगे तो बंदा हाज़िर है।
👌👍
जवाब देंहटाएंAajkal to sb matlab se milte hn...Or bina kisi matlab ke kisi se milo to bhi vo samjhega koi matlab hoga jrur
Bahut khub likha
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