अप्रैल 30, 2020

मेरी ज़िंदगी में शामिल सभी अपनो और ज़माने वालो धन्यवाद - डॉ लोक सेतिया

   मेरी ज़िंदगी में शामिल सभी अपनो और ज़माने वालो धन्यवाद 

                                             - डॉ लोक सेतिया 

  शुरआत इसी बात से करता हूं सभी जो भी मेरे जीवन का हिस्सा बनकर रहे उनकी मेहरबानी मुझे अपनाने के लिए। ज़िंदगी के इस मोड़ पर जब 69 वां साल पूरा होने और 70 वां शुरू होने को है दिल से हर शिकवे गिले भुलाकर शिकायत नहीं बस आभार व्यक्त करना है सभी से जितना भी प्यार अपनापन मिला उसके लिए धन्यवाद करता हूं। ये अच्छा है मेरी आदत रही है जब भी किसी से अनबन मनमुटाव हुआ कुछ समय बाद दिल से बात निकल जाती है और विचार करता हूं कि उन्हीं ने कितनी बार मुझे भी तमाम खामियों कमियों को छोड़कर अपनाया भी है। आज इसलिए सब परिवार के सदस्यों दोस्तों के साथ बाकी समाज से भी ये कहना है कि जाने अनजाने किसी भी तरह जिस किसी को ठेस पहुंचाई हो मुमकिन हो तो क्षमा कर दिल से बात निकाल दें। दुनिया में किसी को भी सभी कुछ नहीं हासिल होता है और खुश रहना हो तो जितना मिला उसी को बहुत समझना चाहिए। 

अब अपनी ज़िंदगी की बात सच सच लिखना चाहता हूं। कुछ साल पहले तक मुझे तकदीर से ईश्वर से कई शिकायत रहती थी। मुझे निराशा ने जकड़ा हुआ था मगर धीरे धीरे मैंने अपने भीतर से निराशा को निकाल बाहर किया और सकारात्मक ढंग से सोचना शुरू किया भले जीवन में घटनाएं हालात विपरीत भी क्यों नहीं रहे हों। जो बीत गया उसे छोड़ भविष्य को लेकर आशावादी सोच रखने की कोशिश की है। और मैंने खुद के नज़रिए से नहीं बाकी लोगों के नज़रिए को ध्यान रखकर समझना चाहा है कि उन सभी की आशाओं आकांक्षाओं को लेकर मैं भी कभी पूर्णतया खरा नहीं उतरा हूं। शायद अधिकांश लोग अपनी जगह सही होते हैं या फिर खुद अपनी कमी गलती कोई भी समझ नहीं पाता है। ऐसे में व्यर्थ मन में शिकायत रखना किसी काम नहीं आता बल्कि जिस ने जितना भी साथ निभाया उतना ही काफी है। ये बात शायद कम लोग विश्वास करेंगे कि मुझे कभी भी लंबी आयु की आरज़ू नहीं रही और जैसा मैंने शायरी में लिखा कई जगह मौत तो दरअसल इक सौगात है पर सभी ने इसे हादिसा कह दिया। बेशक इतना हर कोई चाहता है कि जितने भी अपने हैं जिनको शायद ज़रूरत है उनकी खातिर जब तक संभव हो ज़िंदा रहकर अपना कर्तव्य निभा सके। बेशक ऐसा पूर्णतया संभव नहीं फिर भी अब लगता है जितना कर पाया बहुत है और जब तक जिया किसी से कुछ भी चाहत नहीं बस सबके साथ का मेहरबानियों का बदला चुकाना है।  हर लिखने वाला इक सपना देखता है ऐसे समाज का जिस में समानता हो अन्याय नहीं हो मानवीय संवेदना का समाज हो इंसानियत भाईचारा हो और जब देखता है समाज की वास्तविकता विपरीत है विसंगति विडंबना को देख कर अपनी भावनाओं को रचना का सवरूप देता है। मेरा भी विश्वास यही रहा है ऐसे देश समाज का निर्माण करने को। क्योंकि मुझे लगता है मैंने जितना भी जीवन जिया है सार्थक जीने का जतन किया है इसलिए मुझे नहीं लगता कि मौत से कोई अंतर पड़ेगा और अपने लेखन में मैं हमेशा ज़िंदा रहूंगा। जब हर किसी को इक दिन दुनिया से जाना है तो घबराना किस लिए और रोना धोना क्यों।

मैं बेहद भावुक रहा हूं और मेरे स्वभाव में अपनी भावनाओं ख़ुशी नाराज़गी या किसी बात को नापसंद करने को संयम नहीं रख पाने की आदत रही है जो कई बार अतिउत्तेजना में अपनों पराओं को ठेस पहुंचाती रही है। मगर सच तो ये है कि मेरे मन में किसी के लिए भी अनादर की भावना नहीं रही है। और न ही कोई अहंकार कभी रखता रहा हूं जैसा मुमकिन है कई लोग समझते रहे हैं। समाज में जिन बातों को अनुचित और गलत समझता रहा उनको लेकर मेरा विरोध मुखर ही नहीं बल्कि कितनी बार सामने स्पष्ट कहने जतलाने के कारण कई दोस्त बचते रहे हैं खुलकर चर्चा करने से जबकि मैंने आपसी संबंध और देश समाज की बातों को उचित ढंग से समझा है और अपने लेखन में कभी निजि व्यक्तिगत विषयों की बात उजागर नहीं की है। हां सामाजिक सरोकार में संभव है अपने अनुभव को खुद की बात नहीं पूरे समाज से जोड़कर देखने की बात की है जो शायर कवि लेखक करते हैं। अपने दर्द को हर किसी के दर्द से जोड़कर देखना। मैंने जीवन भर अपने समय को सार्थक ढंग से हर पल को उपयोग किया है। अपने कामकाज के साथ मिलने जुलने बात करने के साथ बाकी वक़्त चिंतन मनन और लेखन में व्यतीत किया है। संगीत से बचपन से लगाव रहा है और हमेशा गुनगुनाना मेरी आदत में शामिल है क्योंकि पुराने गीत ग़ज़ल से मुझे सुकून मिलता है। मैं मानता हूं कि मैंने अपनी ज़िंदगी को अपनी मर्ज़ी से जिया है और जितना जैसे जीवन बिताया है उस से संतोष है।


इक बात मुझे लगती है कि जब भी मेरी ज़िंदगी का अध्याय खत्म हो मेरे अपने कोई अफ़सोस या दुःख का अहसास नहीं कर मुझे हंसते हुए विदा करें और कोई शोकसभा नहीं थोड़ा जश्न जैसा हो जिस में हो सके तो मेरी बातों और रचनाओं की चर्चा हो। स्वर्ग मोक्ष की चाहत नहीं और कोई अनावश्यक कर्मकांड नहीं। तीस साल पहले 1990 में लिखी अपनी नज़्म वसीयत दोहराता हूं।

  जश्न यारो मेरे मरने का मनाया जाये ( वसीयत-नज़्म )   डॉ लोक सेतिया 

जश्न यारो , मेरे मरने का मनाया जाये ,
बा-अदब अपनों परायों को बुलाया जाये।

इस ख़ुशी में कि मुझे मर के मिली ग़म से निजात ,
जाम हर प्यास के मारे को पिलाया जाये।

वक़्त ए रुखसत मुझे दुनिया से शिकायत ही नहीं ,
कोई शिकवा न कहीं भूल के लाया जाये।

मुझ में ऐसा न था कुछ , मुझको कोई याद करे ,
मैं भी कोई था , न ये याद दिलाया जाये।

दर्दो ग़म , थोड़े से आंसू , बिछोह तन्हाई ,
ये खज़ाना है मेरा , सब को दिखाया जाये।

जो भी चाहे , वही ले ले ये विरासत मेरी ,
इस वसीयत को सरे आम सुनाया जाये।   


अंत में मुझे जो बात सभी से कहनी है वो अपने लेखन धर्म को लेकर है। शायद बहुत लोग लिखने को केवल समय बिताने या अपनी पहचान अथवा शोहरत हासिल करने का माध्यम समझते हैं। जबकि मुझे लिखना उसी तरह पसंद लगता है जैसे किसी को ईबादत पूजा अर्चना या कोई खेल या किसी कलाकार को अभिनय या संगीत। मेरे लिए बिना लिखे जीना संभव ही नहीं था ठीक जैसे सांस लेना ज़रूरी है। इक संतोष का अनुभव होता है कि मैं कुछ सार्थक कर रहा हूं सृजन का सुखद एहसास मुझे अच्छा लगता है। मुमकिन है ऐसा करते हुए कुछ लोगों के अनुसार मैंने कोई अपराध जैसा किया है तो मुझे अपना जुर्म स्वीकार है और उनकी सज़ा भी मंज़ूर है। चाहे जो भी जिस विषय को लेकर लिखता रहा पूरी ईमानदारी से लिखा है और मुझे इस को लेकर कोई खेद या ग्लानि कदापि नहीं हो सकती है। लिखना मुझे लगता है जैसे विधाता ने मुझे इसी काम करने को बनाया था भले जिनको साहित्य से सरोकार नहीं उनको ये व्यर्थ समय की बर्बादी करना लगता है ऐसा समझा है देखा है। मेरे लिए यही सार्थक जीना और सांस लेने की तरह आवश्यक भी है क्योंकि इसको छोड़ मैं जीने की कल्पना भी नहीं कर सकता। ज़िंदगी भर इक दोहा तुलसी जी का मुझे जो सबक देता है मेरे स्वभाव का हिस्सा है। पावत ही हर्षत नहीं नयनन नहीं स्नेह , तुलसी तहां न जाइए कंचन बरसे मेह। अपनी इक ग़ज़ल में बस इक यही शिकायत की है जाने किस से। मतला और इक शेर उसी ग़ज़ल से यहां दोहराता हूं।

खुदा बेशक नहीं सबको जहां की हर ख़ुशी देता  , 

हो जीना मौत से बदतर न ऐसी ज़िंदगी देता । 

मुहब्बत कर नहीं सकते अगर नफ़रत नहीं करना  , 

यही मांगा सभी से था नहीं कोई यही देता । 


 



2 टिप्‍पणियां:

  1. देर से पढ़ने के लिए क्षमा...प्यारी आशावादी नज़्म सहित...आपकी ज़िंदगी के मकसद को बताता बढ़िया लेख..प्रेरक...नमन

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  2. संजय तन्हा जी धन्यवाद। आप जैसे दोस्त बहुत थोड़े हैं जो मेरी रचनाओं को भी और मुझे भी समझते हैं या समझना चाहते हैं।

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