जनता के शासन में राजाओं महाराजाओं जैसे तौर तरीके ( आलेख )
डॉ लोक सेतिया
भारत और अमेरिका विश्व के दो सबसे बड़े लोकतंत्र कहलाते हैं। जब भारत में चुनाव होने वाले थे तब कुछ भारतीय अमेरिका में हौडी मोदी नाम से आयोजन करते हैं जिस में अमेरिका के शासक मोदी जी के समर्थक की तरह सहयोग करते हैं। जबकि दो देशों के संबंध दो लोगों के बीच की दोस्ती से बहुत ऊपर देशों की जनता के साथ साथ और सहयोग से बनते हैं। अब बदले में या फिर उस क़र्ज़ को चुकाने को भारत देश की सरकार नमस्कार ट्रम्प नाम से गुजरती में केम छो आयोजित करने जा रहे हैं अमेरिका में चुनाव से ठीक पहले इक शुरुआत की तरह से। कोई सौ करोड़ खर्च कर लाख लोगों की भीड़ जमा कर भव्य आयोजन किया जाना है। शायद इस से बढ़कर उपहास नहीं हो सकता कि ऐसे आयोजन में देश की वास्तविकता गरीबी अथवा झुगी झोपड़ी को छिपाने को इक सात फ़ीट ऊंची दीवार बनाई गई है ये बेशर्मी की हद है। सौ करोड़ में ऐसे गरीबों के घर भी बन सकते थे मगर जब सत्ता की राजनीति की विचारधारा ही जनता के शासन में अपने आप को राजा समझने जैसी बन गई है तब राजनेताओं से आम नागरिक के लिए संवेनशीलता की बात बेमायने हो जाती है।
मगर असली सवाल ये है कि लोकतंत्र में जनता के शासन में कोई भी शासक राजा की तरह आचरण कैसे कर सकता है और क्या तमाम संवैधानिक संस्थान अपनी आंखें और कान बंद कर खामोश तमाशाई बने हुए हैं। लगता है किसी बड़े अमीर देश का महाराजा इस गरीब देश में अपनी शान बढ़ाने को आने वाला है। क्या अमेरिका नहीं जनता कि इस समय भारत की सरकार देश की अर्थव्यवस्था को अपने स्वार्थ में उपयोग कर कुछ खास लोगों को फायदा पहुंचा बर्बाद करने के बाद देश की जनता को दमन पूर्वक दबाने का कार्य कर रही है और पुलिस न्यायपालिका सत्ता के हाथ की कठपुतली बनकर न्याय कानून को अपनी मनमानी से इस्तेमाल कर रहे हैं। अमेरिका की निति लोकतंत्र को लेकर कितनी उचित या अनुचित है ये उस देश के नागरिक भली तरह से समझते हैं। लेकिन भारत देश में कोई अच्छे दिन के सुनहरे सपने दिखला कर सेवक और चौकीदार होने की बात करने वाला नेता जब देश की गरीबों की कमाई अपने शानो शौकत आडंबर और झूठे गुणगान पर खर्च करता है तो कथनी करनी का विरोधाभास साफ हो जाता है।
भविष्य के भारत की राजनीति को साफ स्वच्छ करने की बात छोड़ धर्म के नाम पर आपस में नफरत की दीवार खड़ी कर बांटने का कार्य सत्ता हासिल करने को देश भक्ति नहीं हो सकती है। और देश के कई राज्यों की जनता ने इस को समझा है और ऐसे विचार वाले लोगों को हाशिये पर पहुंचाया है। अभी दिल्ली में उनका ये ढंग पूरी तरह असफल हुआ है। जाने ये कैसी मानसिकता है जो देश के संसद में बैठे लोग बड़े बड़े पद पाने के बाद अपने देश के नागरिकों को हो गाली अपशब्द बोलकर जो मर्ज़ी कहते हैं मगर न्याय कानून चुपचाप खड़ा रहता है। मगर जब संसद में करीब आधे लोग आपराधिक छवि के हों तो उनसे गीता रामायण पाठ की उम्मीद नहीं की जा सकती है। जब हम लोग ख़लनायक के कारनामों पर तालियां बजाते हैं तब केवक किसी फिल्म की कमाई और सफलता की बात होती है मगर जब आपराधिक छवि के लोगों को संसद चुनते हैं तब कांटे बोने का काम करते है और बबूल बोकर आम नहीं खा सकते हैं।
इस देश को इक गुलशन फूलों का चमन बनाना था मगर अब इसको कांटों भरा रेगिस्तान बनाने की राह जाने लगे हैं। वक़्त फिर उसी मोड़ पर खड़ा है जहां कोई सत्तानशीन खुद को देश समझने लगा है मगर देश केवल ज़मीन का टुकड़ा नहीं देश की जनता उसके नागरिक आवाम होते हैं। ये बात रेखांकित करने की ज़रूरत है कि जनता के निर्वाचित लोग देश के सेवक बनकर कर्तव्य निभाने को होते हैं शासक बनकर राजाओं की तरह मनमानी दमन और ऐशो आराम शानो शौकत दिखाने की कदापि नहीं।
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