नवंबर 21, 2019

उड़ने की चाह में इरादे बदल जाते हैं ( ग़ज़ल ) डॉ लोक सेतिया "तनहा"

       उड़ने की चाह में इरादे बदल जाते हैं ( ग़ज़ल ) 

                       डॉ  लोक सेतिया "तनहा"

उड़ने की चाह में इरादे बदल जाते हैं 
पांव चलते हुए अचानक फिसल जाते हैं। 

अब मुहब्बत कहां , तिजारत सभी करते हैं 
अब तो क़िरदार रोज़ सारे बदल जाते हैं। 

ढूंढती हर शमां नहीं मिलते वो परवाने 
आग़ में प्यार की जलाते हैं जल जाते हैं। 

आस्मां पे नहीं ज़मीं पर नज़र रखते हैं 
राह फ़िसलन भरी कदम खुद संभल जाते हैं। 

फिर उसी मोड़ पर मुलाकात नहीं हो उनसे 
हम झुका कर नज़र उधर से निकल जाते हैं। 

दब गई राख में चिंगारी बनी जब शोला 
तेज़ आंधी चले महल तक भी जल जाते हैं। 

अब वहां कुछ नहीं न शीशा न साकी फिर भी 
देख कर मयक़दे को "तनहा" मचल जाते हैं।

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