दिल्ली का चोर बाज़ार ( आज की राजनीति )
कटाक्ष - डॉ लोक सेतिया
अपने भी नाम तो सुन रखा होगा , खुलेआम लगता था पुरानी दिल्ली में चोर बाज़ार नाम से सब मिलता था सस्ते दाम पर। आज की राजनीति को समझना चाहा तो याद आई कभी जाकर देखा तो नहीं था। आपको अपना बेहद कीमती अधिकार पांच साल बाद उपयोग करना है मगर आपको खरा सोना तो क्या शुद्ध पीतल भी किसी भी दुकान पर नहीं दिखाई दे रहा। हर दल नकली मिलावटी या इधर उधर से सस्ते दाम खरीदे माल को अपना लेबल चिपका कर आपको बेचना नहीं ठगना चाहते हैं। संभल कर चोर बाज़ार में जेबतराश भी बहुत हैं और चेतावनी भी जगह जगह लिखी हुई है जेबकतरों से सावधान। चोर बाज़ार अब देश भर में फ़ैल चुका है राजनीति का चोखा धंधा इतना बढ़ता गया है कि चोरी और सीनाज़ोरी यही होने लगा है। चलो आपको शुरू से चोर बाज़ार चोरों की टोली और चोरों के सरदार से अली बाबा चालीस चोर की वास्तविककता बताते हैं।
तब एकाधिकार जैसा था उनकी धाक थी और गांव शहर उन्हीं का नाम बिकता था। विकल्प तलाश करने की हमारी आज भी आदत नहीं है बिना समझे इस नहीं तो उस को चुन लिया मगर हमारी कसौटी पर खरा कोई भी नहीं उतरा कभी। सब एक थैली के चट्टे बट्टे हैं हमने भी हार मान ली उसी गलती का सिला चुका रहे हैं कभी खुद ढूंढते सच्चे लोगों की कमी नहीं थी मगर हमने कोशिश की ही नहीं अच्छे बुरे की पहचान करने की। ऐसे में गंगा उल्टी बहती रही जनता के चुने लोग कहीं नहीं रहे और तथाकथित ऊपरी आलाकमान की मर्ज़ी के लोग मनोनीत होते रहे। नतीजा लोकतंत्र की जगह चाटुकारिता और मनमानी का बोलबाला होने से तानाशाही फलने फूलने लगी थी। भीड़ की आवाज़ में सच किसी को सुनाई नहीं देता था और धीरे धीरे ये रोग देश से राज्य तक फैलता गया और कुछ लोगों ने देश की आज़ादी और लोकतंत्र को अपनी मुट्ठी में बंद कर लिया था।
स्थनीय स्तर पर लोगों ने कुछ विकल्प बनाने की कोशिश की तो सत्ता की चाहत ने उनको स्वार्थी बिना विचारधारा के गठबंधन की राजनीति ने भटका दिया और ऐसे दल किसी व्यक्ति की निजि जायदाद बन गए। जो लोग स्वार्थ से साथ जुड़े उनके स्वार्थ समय समय पर बदलते रहे और ऐसा लगने लगा जैसे ये राजनीति काजल की कोठरी है जिस में भीतर जाते ही कालिख लगना नियति है। मगर नहीं देश की चिंता करने वाले लोग अडिग होकर बदलाव की कोशिश करते रहे। एक समय आया जब जनमत ने ख़ामोशी से तानाशाही को हराकर अपना इरादा ज़ाहिर कर दिया था। मगर उसके बाद सत्ता की चाह ने गठबंधन के धर्म को छोड़कर लालच की राह चल कर जनता को देश को फिर अंधी गली में ला दिया। तब से केवल सत्ता की स्वार्थ की राजनीति ने लोकतंत्र के आसमान को ढक दिया है और उम्मीद की कोई किरण नहीं नज़र आती है।
हम लोग बार बार रौशनी की खोज करते हैं और किसी को सूरज समझ लेते हैं मगर जैसे ही सत्ता के सिंहासन पर बिठाते हैं वो घना अंधकार साबित होता है। जो रौशनी लाने की बात करता है वही अंधेरे को बढ़ाता जाता है और जितने भी चोर लुटेरे जिस भी जगह होते हैं उनको साथी बनाकर देश के खज़ाने की लूट में शामिल कर लेता है। देशभक्ति ईमानदारी का तमगा लगाकर राजनेता खुद अपने लिए सुख साधन हासिल कर शान से रहते हैं और जनता को अधिकार नहीं खैरात बांटने का आडंबर करते हुए और भी बेबस कर देते हैं क्योंकि उनका शासन कायम तभी रह सकता है।
( अभी बात अधूरी है )
तब एकाधिकार जैसा था उनकी धाक थी और गांव शहर उन्हीं का नाम बिकता था। विकल्प तलाश करने की हमारी आज भी आदत नहीं है बिना समझे इस नहीं तो उस को चुन लिया मगर हमारी कसौटी पर खरा कोई भी नहीं उतरा कभी। सब एक थैली के चट्टे बट्टे हैं हमने भी हार मान ली उसी गलती का सिला चुका रहे हैं कभी खुद ढूंढते सच्चे लोगों की कमी नहीं थी मगर हमने कोशिश की ही नहीं अच्छे बुरे की पहचान करने की। ऐसे में गंगा उल्टी बहती रही जनता के चुने लोग कहीं नहीं रहे और तथाकथित ऊपरी आलाकमान की मर्ज़ी के लोग मनोनीत होते रहे। नतीजा लोकतंत्र की जगह चाटुकारिता और मनमानी का बोलबाला होने से तानाशाही फलने फूलने लगी थी। भीड़ की आवाज़ में सच किसी को सुनाई नहीं देता था और धीरे धीरे ये रोग देश से राज्य तक फैलता गया और कुछ लोगों ने देश की आज़ादी और लोकतंत्र को अपनी मुट्ठी में बंद कर लिया था।
स्थनीय स्तर पर लोगों ने कुछ विकल्प बनाने की कोशिश की तो सत्ता की चाहत ने उनको स्वार्थी बिना विचारधारा के गठबंधन की राजनीति ने भटका दिया और ऐसे दल किसी व्यक्ति की निजि जायदाद बन गए। जो लोग स्वार्थ से साथ जुड़े उनके स्वार्थ समय समय पर बदलते रहे और ऐसा लगने लगा जैसे ये राजनीति काजल की कोठरी है जिस में भीतर जाते ही कालिख लगना नियति है। मगर नहीं देश की चिंता करने वाले लोग अडिग होकर बदलाव की कोशिश करते रहे। एक समय आया जब जनमत ने ख़ामोशी से तानाशाही को हराकर अपना इरादा ज़ाहिर कर दिया था। मगर उसके बाद सत्ता की चाह ने गठबंधन के धर्म को छोड़कर लालच की राह चल कर जनता को देश को फिर अंधी गली में ला दिया। तब से केवल सत्ता की स्वार्थ की राजनीति ने लोकतंत्र के आसमान को ढक दिया है और उम्मीद की कोई किरण नहीं नज़र आती है।
हम लोग बार बार रौशनी की खोज करते हैं और किसी को सूरज समझ लेते हैं मगर जैसे ही सत्ता के सिंहासन पर बिठाते हैं वो घना अंधकार साबित होता है। जो रौशनी लाने की बात करता है वही अंधेरे को बढ़ाता जाता है और जितने भी चोर लुटेरे जिस भी जगह होते हैं उनको साथी बनाकर देश के खज़ाने की लूट में शामिल कर लेता है। देशभक्ति ईमानदारी का तमगा लगाकर राजनेता खुद अपने लिए सुख साधन हासिल कर शान से रहते हैं और जनता को अधिकार नहीं खैरात बांटने का आडंबर करते हुए और भी बेबस कर देते हैं क्योंकि उनका शासन कायम तभी रह सकता है।
( अभी बात अधूरी है )
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